Sahityik Nibandh

श्री सुमित्रानंदन पंत

Sumitranandan pant ka parichay

कविवर सुमित्रानंदन पंत का जन्म संवत् 1657 में अल्मोड़ा के कौसानी नामक स्थान में हुआ था। वह अपने छात्र जीवन में ही काव्य रचना करने लगे थे। तब से उन्होंने काव्य के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का अनेक रूपों में परिचय दिया है। उन्होंने ‘वीणा’, ‘ग्रन्थि’, ‘पल्लव’, ‘गुंजन’, ‘युग- वाणी,’ ‘युगान्त’, ‘ग्राम्या’, ‘उत्तरा’, ‘स्वर्ण-किरण’, ‘अमिता’ आदि अनेक काव्यों की रचना की है। आधुनिक युग के हिंदी कवियों में उनका प्रकृति-चित्रण के क्षेत्र में सबसे अधिक महत्त्व है। उन्होंने अपने काव्य में प्रकृति को जितना व्यापक स्थान प्रदान किया है उतना हिंदी के किसी भी कवि ने नहीं किया है। उन्होंने अपनी रचनाओं में छायावाद, रहस्यवाद और प्रगतिवाद के सिद्धांतों का भी समावेश किया है। इनमें से उनका ध्यान मुख्य रूप से छायावाद के प्रतिपादन की ओर रहा है। प्रगतिवाद को लेकर उन्होंने कुछ कविताओं की रचना की अवश्य है, किंतु अब उनका उसमें विश्वास नहीं रहा है। आगे हम उनके काव्य की विभिन्न विशेषताओं पर क्रमशः प्रकाश डालेंगे।

रस- योजना

पंत जी ने अपने काव्य में रस योजना की ओर पर्याप्त ध्यान दिया है। उन्होंने मुख्य रूप से शृंगार रस शांत रस और करुण रस का प्रयोग किया है। शृंगार रस के अंतर्गत उन्होंने संयोग शृंगार और वियोग शृंगार, दोनों के चित्रण की ओर ध्यान दिया है। उनके संयोग शृंगार संबंधी चित्रों में प्रेम और सौंदर्य के चित्रण को व्यापक स्थान प्राप्त हुआ है। इस प्रकार की कविताओं में मधुरता और कलात्मकता के समावेश का पूर्ण ध्यान रखा गया है। इस दृष्टि से उनकी ‘गुंजन’ नामक काव्य की ‘भावी पत्नी के प्रति, शीर्षक कविता विशेष रूप से पढ़ने योग्य है। उन्होंने अपनी कविताओं में संयोग शृंगार के चित्रण की ओर ही अधिक ध्यान दिया है। यद्यपि उनकी रचनाओं में वियोग शृंगार का अभाव नहीं है, किंतु उस ओर उन्होंने अधिक ध्यान नहीं दिया है। अन्य रसों में उन्होंने शांत रस का भी पर्याप्त चित्रण किया है। उनकी भक्ति और नीति संबंधी कविताओं में रस का अच्छा चित्रण हुआ है। वैसे तो उन्होंने इस रस को प्राय: अपने प्रत्येक ग्रंथ में स्थान दिया है, तथापि उनकी ‘उत्तरा’ और ‘स्वर्ण-किरण’ शीर्षक कृतियों में इसका विशेष प्रयोग मिलता है। अपनी कुछ कविताओं में उन्होंने शांत रस के साथ- साथ करुण रस को भी एक ही स्थान पर उपस्थित किया है। आगे हम उनके काव्य से करुण रस का एक मार्मिक छंद उपस्थित करते हैं-

“अभी तो मुकुट बँधा था माथ,

हुए कल ही हल्दी के हाथ।

खुले भी न थे लाज के बोल,

खिले भी चुम्बन – शुन्य कपोल।

हाय रुक गया यहीं संसार,

बना सिन्दूर अंगार॥”

सौंदर्य-चित्रण

पंत जी सौंदर्य के अनुपम चित्रकार हैं। उन्होंने अपने काव्य में प्रकृति और मानव जगत् से संबंधित विविध सौंदर्य-चित्रों को व्यापक अभिव्यक्ति प्रदान की है। इनमें उन्होंने सौंदर्य के साधारण चित्रण के अतिरिक्त उसे सूक्ष्म रूप में भी उपस्थित किया है। इस दिशा में जहाँ प्रकृति-सौंदर्य के चित्रण में उन्होंने वर्तमान युग के कवियों में सबसे अधिक विविधता का परिचय दिया है वहाँ मानव जीवन के सौंदर्य का चित्रण करने की ओर भी उन्होंने व्यापक ध्यान दिया है। वह सौंदर्य को पहचानने और उसका चित्रण करने में पूर्णतः कुशल हैं। उन्होंने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से संसार में सभी ओर सौंदर्य के दर्शन करने का प्रयत्न किया है। उदाहरण के लिए उनकी निम्न- लिखित पंक्तियाँ देखिए-

“डूबे दिशि-पल के ओर-छोर,

महिमा अपार सुखमा अछोर!

जग-जीवन का उल्लास,

यह सिहर, सिहर,

यह लहर, लहर,

यह फूल-फूल करता विलास!”

प्रकृति-चित्रण

पंत जी के काव्य में प्रकृति चित्रण को प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ है। उन्होंने प्रकृति के सूक्ष्म से सूक्ष्म तत्त्वों को भी अपने काव्य में स्थान देने का प्रयत्न किया है। उनकी कविताओं में प्रकृति के कोमल और कठोर, दोनों रूपों का चित्रण हुआ है। कोमल प्रकृति का चित्रण उनकी अधिकांश कविताओं में प्राप्त होता है। प्रकृति के भयंकर रूप को उन्होंने अपनी ‘परिवर्तन’ शीर्षक कविता में स्थान प्रदान किया है। उन्होंने प्रकृति का विविध रूपों में चित्रण किया है। उनके काव्य में उसके सजीव रूप में दर्शन होते हैं। प्रकृति के शुद्ध चित्र उपस्थित करने के अतिरिक्त उन्होंने प्रकृति और मानव में सहज संबंध स्थापित करने की ओर भी विशेष ध्यान दिया है। इस दृष्टि से उन्होंने प्रकृति के दर्शन से मनुष्य के हृदय में भावना और चिंतन को जन्म लेते हुए दिखाया है। उदाहरण के लिए उनकी ‘नौका विहार’ शीर्षक कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिए-

“ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार,

उर में आलोकित शत विचार।

इस धारा-सा हो जग का क्रम,

शाश्वत इस जीवन का उद्गम,

शाश्वत है गति, शाश्वत संगम!”

भाषा-शैली

पंत जी ने अपने काव्य की रचना खड़ीबोली में की है। उन्होंने उसे कोमलता प्रदान करने की दिशा में विशेष कार्य किया है। उन्होंने संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों के अतिरिक्त ब्रजभाषा और अंग्रेजी आदि अन्य भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग किया है। उनका शब्दों पर पूर्ण अधिकार रहा है और प्रायः उन्होंने व्याकरण की भूलें नहीं की हैं। उनकी कविताओं में माधुर्य गुण और प्रसाद गुण को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। उनकी भाषा पर छायावाद की सूक्ष्मताओं का विशेष प्रभाव पड़ा है। उसे सजीवता प्रदान करने के लिए उन्होंने अपनी कविताओं में मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग की और भी उपयुक्त ध्यान दिया है। उनकी कविताओं में शैली का प्रयोग भी विविध रूपों में हुआ है। इनमें से उन्होंने चित्र शैली के प्रयोग की ओर सबसे अधिक ध्यान दिया है। इस शैली के अनुसार लिखे गए काव्य में पाठक के सामने विषय का पूर्ण चित्र अपने आप ही स्पष्ट होता जाता है। इसके व्यापक प्रयोग के कारण पंत जी को अपने काव्य के कला-पक्ष को सजाने में विशेष सफलता प्राप्त हुई है।

अलंकार – योजना

पंत जी ने अपने भावों और भाषा को सौंदर्यपूर्ण बनाने के लिए अर्थालंकार और शब्दालंकारों की व्यापक योजना की है। हिंदी के प्रमुख अलंकारों के अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेजी के ‘मानवीकरण’ और ‘विशेषण – विपर्यय’ नामक अलंकारों का भी प्रयोग किया है। वह अलंकारों को स्वाभाविक रूप में उपस्थित करने में विश्वास रखते हैं। उनके अलंकारों में नवीन छायावादी उपमानों को भी व्यापक स्थान प्राप्त हुआ है। इन उपमानों की योजना करने में उन्होंने अपनी कल्पना शक्ति का अच्छा परिचय दिया है। अलंकारों की कृत्रिम योजना के स्थान पर उन्होंने रचना के भाव सौंदर्य को पाठक के हृदय पर अधिक प्रभाव डालने वाली माना है। उदाहरण के लिए उनके इस विचार को स्पष्ट करने वाली निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिए-

“वाणी मेरो ! चाहिएँ तुम्हें क्या अलंकार ?

तुम वहन कर सको जन-मन में मेरे विचार।”

छंद-प्रयोग

पंत जी ने अपने काव्य में रोला, सखी, रूपमाला और पीयूषवर्षण आदि अनेक मात्रिक छंदों का कुशल प्रयोग किया है। छंदों की योजना करते समय उन्होंने प्राचीन नियमों का पालन करने के अतिरिक्त कही-कहीं नवीनता भी दिखाई है। उनके छंदों में राग और लय की अनिवार्य स्थिति रही है। इस तत्त्व के द्वारा अपने छंदों में प्रवाह की ओर भी सफल रूप में योजना की है। इस दृष्टि से उनकी ‘गुंजन’ और ‘ज्योत्स्ना’ नामक कृतियाँ विशेष रूप से पढ़ने योग्य है। इनमें संगीत और छंद में सामंजस्य स्थापित करने का सुंदर प्रयत्न किया गया है। छंद-प्रयोग के विषय में उन्होंने अपने दृष्टिकोण को ‘पल्लव’ की भूमिका में पूर्ण रूप से स्पष्ट कर दिया है।

उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि पंत जी ने अपने काव्य में भावना और कला संबंधी विविध विशेषताओं का अच्छा संयोजन किया है। इन दोनों ही क्षेत्रों में उन्होंने अपनी कुशलता का पूर्ण परिचय दिया है। कल्पना और सौंदर्य से युक्त होने के कारण उनके भाव हृदय पर तुरंत प्रभाव डालते हैं। इसी प्रकार उन्होंने विविध कला तत्त्वों को भी सूक्ष्म रूप में उपस्थित किया है। छायावाद के कवियों में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अपनी कविताओं में अन्य विषयों को ग्रहण करने पर भी छायावाद की किसी-न-किसी विशेषता का अपनी कविताओं में संचार करने का निरंतर ध्यान रखा है। इन्होंने काव्य रूपक लिखने में भी रुचि दिखाई है। इनमें प्रकृति और मानव हृदय के सौंदर्य के चित्रण की ओर मुख्य ध्यान दिया जाता है। इस दिशा में उनके ‘शिल्पी’ और ‘रजत-शिखर’ नामक दो उत्कृष्ट काव्य-रूपक-संग्रह प्राप्त होते हैं।

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