संकेत बिंदु-(1) स्वतंत्र्योत्तर सामाजिक और प्रतीक नाटक (2) पौराणिक चरित्र के नाटक (3) राजनीतिक नाटक (4) सांस्कृतिक नाटकं (5) नुक्कड़ नाटक।
देश की स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदी नाटक यथार्थ और रंगमंच से जुड़कर नई दिशा की ओर उन्मुख हुआ। हिंदी नाटकों की कथावस्तु में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। ऐतिहासिक और पौराणिक कथानक आधुनिक युगबोध की परिधि में बंधकर रूपायित किए जाने लगे। इस युग में अधिकांश नाटककारों ने सामाजिक-राजनैतिक संदर्भों को नए मुहावरे में ढालकर प्रस्तुत किया। जीवन की विसंगतियों, अंतर्विरोधों, तनावों, कुंठाओं और जीवन की जटिल स्थितियों को नाटककारों ने नए कौशल से नाट्य-रचना प्रक्रिया में अभिव्यक्त किया।
सामाजिक नाटक
स्वातन्त्र्योत्तर हिंदी सामाजिक नाटकों में उल्लेखनीय हैं-उपेन्द्रनाथ अश्क का अंजो दीदी’, ‘भंवर’ और ‘अलग-अलग रास्ते ‘। विष्णु प्रभाकर का ‘डॉक्टर’ और ‘युगे युगे क्रांति’। नरेश मेहता का ‘खंडित यात्राएँ’ और ‘सुबह के घंटे’। डॉक्टर लक्ष्मी नारायण लाल का’ अंधा कुआँ’, ‘मादा कैक्टस’, ‘तीन आँखों वाली मछली’, ‘रातरानी’, ‘दर्पन” कलंकी’ और ‘करफ्यू’। मोहन राकेश का’ आधे अधूरे’। मन्नू भंडारी का ‘बिना दीवारों के घर’, शंकर शेष का ‘फंदी’, ‘पोस्टर’ और ‘चेहरे’, ‘बिन बाती के दीप’, ‘बंधन अपने अपने’, ‘कालजयी’ और ‘रक्त बीज’। भीष्म साहनी का ‘हानुश’ और ‘कबिरा खड़ा बाजार में’। मुद्राराक्षस का ‘मरजीवा’ और ‘तेंदुआ’। इन नाटकों ने सामाजिक-राजनीतिक जीवन के भ्रष्टाचार, पाखंड, अमानवीयता, मध्यवर्गीय जीवन की कड़वाहट, मानवीय मूल्यों के ह्रास और जीवन की यांत्रिकता पर विवेकपूर्ण ढंग से प्रश्न उठाये हैं।
प्रतीक नाटक
डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल हिंदी में प्रतीक नाट्य साहित्य के प्रमुख नाटककार हैं। अंधा कुँआ, मादा कैक्टस, सूखा सरोवर, नाटक तोता-मैना, कर्फ्यू, अब्दुला दीवाना आदि नाटक डॉ. लाल के प्रसिद्ध प्रतीक नाटक हैं। डॉ. धर्मवीर ‘भारती’ रचित काव्य नाटक ‘अंधा युग’ स्वातन्त्र्योत्तर हिंदी नाट्य-साहित्य की उल्लेखनीय उपलब्धि है, जिसमें युद्धोपरांत उग आई हासोन्मुख मानवीय संस्कृति का चित्र है। मोहन ‘राकेश’ का लहरों के राजहंस’ परितोष गार्गी का ‘छलावा’ व ‘मोहिनी’, दुष्यंत कुमार का ‘एक कंठ विषपायी’, संतोष कुमार नौटियाल का’ चाय पार्टियाँ, अज्ञेय का ‘उत्तर प्रियदर्शी, आदि प्रतीक नाटक स्वातन्त्र्योत्तर हिंदी नाट्य-साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। आधुनिक हिंदी नाटककारों में समय के साथ चलने और समयानुसार प्रतीक सृजन करने की उर्वरता विद्यमान है। निस्संदेह आज का हिंदी नाटक प्रतीक-विधान की दृष्टि से समृद्धिशाली है।
पौराणिक चरित्र के नाटक
प्रतीक नाटकों के साथ-साथ स्वातन्त्र्योत्तर हिंदी नाटककारों ने अपनी नाट्य-कृतियों में मिथकीय (पौराणिक) चरित्रों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। नाटककारों ने मिथिक को आधुनिक संदर्भों में रूपायित किया। समकालीन जीवन की विभीषिकाओं एवं क्रूर अमानवीय वास्तविकताओं से साक्षात्कार की जो शुरुआत ‘अंधायुग’, ‘पहला राजा’ और ‘सूर्यमुख’ जैसे नाटकों से हुई थी, जिनमें मिथकों का बहुत ही सार्थक प्रयोग हुआ था, उसी परंपरा को गिरिराज किशोर के ‘प्रजा ही रहने दो, शंकर शेष के ‘एक और द्रोणाचार्य’, लक्ष्मीनारायण लाल के ‘राम की लड़ाई’, ‘नरसिंह कथा’ और ‘सत्य हरिश्चन्द्र’, लक्ष्मीकांत वर्मा के ‘एक ठहरी हुई ज़िंदगी, सुरेंद्र वर्मा के ‘द्रौपदी’, ‘आठवाँ सर्ग’ और ‘छोटे सैयद, बड़े सैयद’, मणि मधुकर के ‘इकतारे की आँख’, ‘दया प्रकाश सिन्हा के ‘कथा एक कंस की’, नरेंद्र कोहली के ‘शंबूक की हत्या’, डॉ. विनय कै’ एक प्रश्न और’, रेवती शरण शर्मा के ‘राजा बलि की नई कथा’ और लक्ष्मीनारायण भारद्वाज के ‘अश्वत्थामा’ जैसे नाटकों ने आगे बढ़ाया।
राजनीतिक नाटक
बीसवीं शताब्दी के सातवें और आठवें दशक में राजनीतिक स्थितियों के बदलते परिवेश ने नाटककार को नए ढंग से नाट्य-सृजन को परिभाषित करने के लिए बाध्य किया। राजनीति की सिद्धांतहीनता और अवसरवादिता ने नाटककारों को नई जमीन से जोड़ा। डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल के ‘रक्त कमल’, ‘पंच पुरुष’ और ‘गंगा माटी, कणाद ऋषि भटनागर के ‘जहर’ और ‘जनता का सेवक’, शरद जोशी के ‘एक था गधा उर्फ अलादाद खाँ’ और ‘अंधों का हाथी’, ब्रजमोहन शाह का ‘शह ये मात’, शंकर शेष के ‘फंदी’ और ‘बंधन अपने-अपने’, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के ‘बकरी’ और ‘अब गरीबी हटाओ’।
लोक नाट्य-रूप
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी नाटककारों ने नए नाट्य-रूपों की खोज करते हुए भी भारतीय रंग-संस्कार और पारंपरिक नाट्य-रूपों के माधुर्य को नहीं छोड़ा। आधुनिक नाटककारों ने नौटंकी और ख्याल जैसे लोक नाट्य-रूपों की शक्ति को पहचाना। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने ‘बकरी’, मणि मधुकर ने ‘रस गंधर्व’, ‘दुलारी बाई’, और ‘बुलबुल सराय’, लक्ष्मीनारायण लाल ने ‘एक सत्य हरिश्चन्द्र’ और ‘नाटक तोता मैना’ हबीब तनवीर ने
आ गए बाजार’, ‘राजा चम्बा और चार भाई’, ‘गाँव के नाँव ससुराल, भोर नाँव दामाद’, ‘चरनदास चोर’ और ‘ख्याल’, ठाकुर पृथ्वीपाल सिंह जैसे नाटकों में लोक-रूपों की गंध और लय को बनाए रखा है। इन सभी नाटकों ने रंगमंचीय सफलता प्राप्त की। इस तरह के नाट्य-प्रयोगों ने हिंदी नाटक को नई उर्वर भूमि पर ला खड़ा किया।
सांस्कृतिक नाटक
समसामयिक नाटककारों ने नाट्य-कृतियों में अपने समय की विसंगतियों और विद्रूपताओं का अंकन करते हुए भी मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठित किया है। बदले संदर्भों में भी नाटककार ने भारतीय संस्कृति, नैतिकता और आदर्शपूर्ण स्थितियों को अपने नाटकों में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। ज्ञानदेव अग्निहोत्री के ‘माटी जागी रे, शंकर शेष के बिन बाती के दीप’, डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल के ‘सुंदर रस’, मुद्राराक्षस के ‘तिलचट्टा’, सत्यप्रकाश संगर के ‘दीप से दीप जले’, चिरंजीत के ‘दादी माँ जागी’ और ‘तस्वीर उसकी’, रेवतीशरण शर्मा के ‘अपनी धरती’ आदि नाटकों में भारतीय संस्कृति और मानवीय संवेदनाओं की गंध विद्यमान है।
काव्य-नाटक
आधुनिक प्रयोगधर्मी नाटककारों ने काव्य-नाटक या पद्य-नाटक की ओर भी पाठकों व दर्शकों का ध्यान केन्द्रित किया। मुख्य रूप से अधिकांश काव्य-नाटकों की कथावस्तु पौराणिक ही है, किंतु उनके माध्यम से नाटककारों ने आधुनिक समस्याओं को ही चित्रित करने का प्रयास किया है। ये नाटक मनुष्य के अंतर्जीवन का सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। काव्य-नाटकों में अज्ञेय का ‘उत्तर प्रियदर्शी, वीरेंद्र नारायण का ‘सूरदास’, डॉ. विनय के ‘रंग ब्रह्म’, विनोद रस्तोगी का ‘सूतपुत्र’ भारतभूषण अग्रवाल का ‘अग्निलीक’, कुंथा जैन का ‘बाहुबली’ आदि नाटकों का नाम उल्लेखनीय हैं।
एब्सर्ड नाटक
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी नाट्य-रचना के क्षेत्र में जो एक अन्य महत्त्वपूर्ण धारा परिलक्षित होती हैं-वह है असंगत (एब्सर्ड) कहे जाने वाले नाटकों की। द्वितीय महायुद्ध के बाद जिस ढंग से मानवीय जीवन और मूल्यों का विघटन हुआ, उसने ‘एब्सर्ड’ (असंगत) नाटक को जन्म दिया। मुख्य रूप से इन नाटकों का उद्देश्य मानव मूल्य एवं मानव जीवन की विसंगतियों को रेखांकित करना ही होता है। लक्ष्मीकांत वर्मा का ‘रोशनी एक नदी है’, मणि मधुकर का ‘रस गंधव’, मुद्राराक्षस का ‘मरजीवा’, ‘योर्स फेथफुली’, ‘तिलचट्टा ‘ और ‘तेंदुआ’, सत्यव्रत सिन्हा का ‘अमृतपुत्र’ एवं काशीनाथ सिंह का ‘घोआस’ महत्त्वपूर्ण एब्सर्ड नाटक की कोटि में आते हैं।
नुक्कड़ नाटक
पिछले दो-तीन दशकों से शिक्षित व अशिक्षित जनता को जागरूक करने में नुक्कड़ नाटकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। जन नाट्य मंच दिल्ली ने ‘औरत’, ‘मशीन’, ‘हत्यारे’ और ‘गाँव से शहर’ जैसे अनेक नुक्कड़ नाटकों की सैकड़ों प्रस्तुतियाँ कर सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, पाखंड, जाति-पांति, ऊँच-नीच और हर प्रकार के शोषण के खिलाफ अपनी आवाज को बुलंद किया है। मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित और प्रेरित नाटककार, नाट्य-निर्देशक और अभिनेता नुक्कड़ नाटकों की ओर विशेष ध्यान दे रहे हैं। इनका सारा ध्यान समाज के उच्च-वर्ग की खिल्ली उड़ाना है। समाज की ज्वलंत समस्याओं की ओर अपने दर्शकों का ध्यान केन्द्रित करने के लिए नाट्य मंडली को अधिक ताम-झाम की आवश्यकता नहीं होती। नुक्कड़ नाटक के लिए न तो किसी मंच की आवश्यकता होती है और न दृश्य बंधों की ये नाटक किसी भी पार्क, चौराहे या सड़क के नुक्कड़ पर खेले जा सकते हैं। दर्शकों की सीधे भागीदारी से इस तरह के नाटकों में जन-संवाद सीधे कायम करने की शक्ति होती है।
स्वातन्त्र्योत्तर हिंदी नाटक और रंगमंच आज अपने शिखर पर है। आज के हिंदी नाटक में देशभर के नाटकों की सृजनात्मक चेतना का स्पर्श समा रहा है। आज के नाटककार ऐसी नाट्य-कृतियों का सृजन कर रहे हैं जिनमें मानव के स मग्न जीवन को धड़कता हुआ महसूस किया जा सकता है। निस्संदेह आज के हिंदी नाटक और रंगमंच की नवीन संभावनाओं के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है।