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विनय पत्रिका के बारे में जानें ……  

Vinaypatrika ke bare me jane in hindi

विनय पत्रिका गोस्वामी जी की अंतिम और साहित्य की दृष्टि से प्रौढ़तम रचना है। इसकी शैली उनकी सभी रचनाओं से पुष्ट हैं। इस रचना में भावों की पुष्टि के लिए कवि को कई भाषाओं का आश्रय लेना पड़ा है। यह समस्त पुस्तक गीति काव्य है। विनय भावना के इतने सुंदर पद समस्त सूर-सागर में भी देखने को नहीं मिलते। आत्म विस्मृति, तन्मयता, भाव-संचय और गीत-माधुर्य रचना में कूट-कूटकर कवि ने भर दिया है। तुलसी का दर्शन और उसके आध्यात्मिक विचार इस ग्रंथ में बहुत पुष्ट होकर भक्त पाठकों के सम्मुख आए हैं। कुछ विद्वान् समालोचक तो आध्यात्मिक क्षेत्र में विनय पत्रिका को मानस से कहीं प्रौढ़ रचना मानते हैं। इस पुस्तक में कवि के लौकिक जगत पर भी कुछ प्रकाश पड़ता है।

स्त्रोत, पद और कवित्त तीन प्रकार की शैलियों में इस रचना को विभक्त किया जा सकता है। जहाँ तक साहित्यिक दृष्टि का संबंध है तुलसीदास जी के स्त्रोतों को अधिक महत्त्व नहीं दिया जा सकता। उनमें संस्कृत-स्त्रोतों की छाया-सी प्रतीत होती है। इनकी भाषा बहुत क्लिष्ट है और इतनी संस्कृत-गर्भित है कि साधारण हिंदी पाठकों के लिए उन्हें समझना कठिन हो जाता है। इनमें अनेकों देवी-देवताओं की लीलाओं का सुंदर वर्णन दिया गया है। इनमें पुनरावृत्ति की भरमार है, इसलिए साहित्यिक रोचकता नष्ट हो जाती है। इनमें अनेकों देवी-देवताओं की उपासना राम के निमित्त ही की गई है। तुलसी के लिए सब देवता उपास्य हैं परंतु स्वतंत्र रूप से नहीं।

विनय पत्रिका में कवि ने भक्ति की दीनता को पराकाष्ठा तक पहुँचा यदि है। दास्य-भावना के साथ कवि देवेच्छा के प्रतिकूल कुछ न कहने का संकल्प करता है, भगवान की रचना में विश्वास रखता है, भगवान को मुक्ति प्रदान करने वाला और भक्तवत्सल बतलाता है। इस रचना में आत्म-समर्पण की भावना प्रचुरता के साथ कवि ने प्रदर्शित की है। भगवान के सामने कवि इतना दीन है कि वह तो अपनी विनय पत्रिका को लेकर भी स्वयं नहीं जा सकता। उसे लेकर जाने के लिए भी उसे हनुमान जी का आश्रय लेना होता है। वैष्णव-संप्रदाय के विनय संबंधी सिद्धांतों के प्रतीकस्वरूप हम विनय पत्रिका को ग्रहण कर सकते हैं। दीनता, मान-मर्षता, भय-दर्शन, भर्त्सना, आश्वासन, मनो राज्य, विचारण-विनय की सातों प्रकार की भूमिकाएँ इस ग्रंथ में उपलब्ध हैं। यही कारण है कि तुलसी के आध्यात्मिक दृष्टिकोण का अध्ययन करने से पूर्व विनय पत्रिका का अध्ययन आवश्यक हो जाता है।

यह ग्रंथ वृद्धावस्था का लिखा हुआ होने के कारण कवि की धार्मिक कल्पनाओं, धारणाओं और सिद्धांतों का एक निश्चित आदर्श बन गया है। आध्यात्मिक क्षेत्र में जो पुष्टि मानस में भी नहीं आ पाई, वह इस रचना में आ गई है। मानस लिखने के पश्चात् कवि की भावनाओं में जितना विकास हुआ है, वह सब इस रचना में आ गया है। मानस में कवि की भावना भक्ति, ज्ञान और कर्म के साथ-साथ चलती है, परंतु विनय पत्रिका की भक्ति अनन्य है वृद्धावस्था में आकर कवि अपने को एक अनन्य भक्त के रूप में देखता है और उसके अंदर से कर्म तथा ज्ञान का सर्वथा लोप हो जाता है। राम उसका एक देवता है और वह उसका उपासक। कवि भक्त की ओर ही अग्रसर है, कर्म तथा ज्ञान की ओर नहीं। अपने उपास्य को प्राप्त करने के लिए केवल भक्ति ही उसका साधन है और साध्य भी। यहाँ आकर कवि प्रत्येक देवता से राम की भक्ति कराना चाहता है। अंतिम काल में कवि संसार से संबंध विच्छेद करके राम चरणों में लगन लगाते हैं। ससार के सब संबंध वह राम से ही जोड़ लेते हैं-

“ब्रह्म तू, हौं जीब, तुम्हीं ठाकुर, हौं चेरो।

तात, मात, गुरु सखा, तू सब विधि हित मेरो॥”

राम के शील का मनन, राम-नाम का स्मरण, राम के सम्मुख आर्त्तभाव से निवेदन, रामभक्तों का सत्संग और अंत में हरि स्वकृपा। यह सब गोस्वामी तुलसीदास जो के हरि उपासना के साधन विनय पत्रिका में बतलाए गए हैं। हरि कृपा को कवि ने सबसे प्रधान साधन बतलाया है जिसके बिना अन्य सब साधन व्यर्थ हो जाते हैं और जीव को गति प्राप्त नहीं होती। भक्त पर भगवान जब करुणा करके द्रवित होते हैं, यह कृपा तभी संभव है और वह द्रवित तभी हो सकते हैं जब भक्त फल की इच्छा न रखते हुए दास्य-भावना से भगवान की भक्ति में अपना तन, मन, धन लगा लेता है। मानव जीवन की शांति के लिए हरि भक्ति की आवश्यकता है। मन की शुद्धि से शांति प्राप्त होती है और मन की शुद्धि से ही भक्ति हो सकती है। शांतिपूर्वक शुद्ध मन से भक्ति करने पर ही हरि कृपा प्राप्त होती होती है। रामचरणों में अनुरक्ति होने से ही कलि-काल में मानव पापों से मुक्त हो सकता है और उसके चित्त की प्रवृत्ति शुद्धि की ओर हो सकती है। संसार का रमणीक अथवा भयानक लगना भ्रम और अविवेक के ही कारण है। यह भ्रम और अविवेक हरि कृपा के बिना दूर नहीं होता।

इस प्रकार हमने देखा कि विनय पत्रिका की रचना प्रधानतया कवि ने साहित्यिक दृष्टिकोण के लोक-धर्म-स्थापना अथवा पांडित्य प्रदर्शन के लिए नहीं की। यह रचना कवि ने अपने आध्यात्मिक दृष्किोण के प्रतिपादन के लिए की है। इसमें ‘ सन्तोष, परहित चिंतन, मृदु-भाषण, राग-द्वेष-हीनता, मान-हीनता, शीतलता, सुख-दुख में समबुद्धि” इत्यादि गुणों की ओर भक्त जनों का ध्यान आकर्षित करने में कवि पूर्णतया सफल रहा है।

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