रसखान
हिंदी साहित्य में कृष्णभक्ति काव्यधारा के अंतर्गत सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास, कृष्णदास, नंददास, हितहरिवंश, मीराँबाई आदि अनेकानेक कवि- कवयित्री हुए। उनमें अनन्य कृष्णभक्त मुसलमान कवि रसखान जी का स्थान अन्यतम है। आप कोमल हृदयवाले, भावुक प्रकृति के इंसान थे। इसलिए दिल्ली के बादशाह – वंश में जन्म लेते हुए भी उन्होंने अपने को राज्यलिप्सा और राज-वंश के अभिमान से दूर रखा। प्रसिद्ध है कि वे श्रीमद्भागवत का फारसी अनुवाद पढ़कर गोपियों के कृष्ण प्रेम से अभिभूत हुए थे और अपने को भी श्रीकृष्ण की भक्ति में निमज्जित कर दिया था।
कवि रसखान जी के जन्म समय, शिक्षा-दीक्षा, आजीविका, निधन- काल आदि बातों को लेकर विद्वानों में आज भी मतभेद बना हुआ है। कहा जाता है कि 1533 ई. के आस-पास आपका जन्म हुआ था और 1618 ई. के आस-पास आपकी मृत्यु हुई थी। प्रसिद्ध है कि गोकुल में आपने गोस्वामी विट्ठलनाथ जी से भक्ति की दीक्षा ग्रहण की थी। यह बात भी प्रसिद्ध है कि रामभक्त कवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने रसखान को यमुना के तट पर स्वरचित ‘रामचरितमानस’ की कथा सर्वप्रथम सुनायी थी। अपने आराध्य से संबंधित सारे उपकरण और सभी स्थान, जैसे- गोकुल, गोवर्धन, ब्रज, वृन्दावन आदि रसखान जी को अत्यंत प्रिय रहे।
प्रेम-भक्ति के कवि रसखान की चार रचनाएँ प्रामाणिक मानी जाती हैं- ‘सुजान-रसखान’, ‘प्रेमवाटिका’, ‘दानलीला’ और ‘अष्टयाम’। आपकी काव्य-भाषा साहित्यिक ब्रज है, जिसमें सहजता, मधुरता और सरसता सर्वत्र विराजमान है। आपने दोहा, कवित्त और सवैया छंदों का ही अधिक प्रयोग किया है। भावुक हृदय से बनी उनकी रचनाओं में भक्ति रस, प्रेम-रस और काव्य-रस तीनों भरपूर विद्यमान हैं। अतः कवि का नाम ‘रसखान’ (रस की खान) पूर्णतः सार्थक बन पड़ा है।
कृष्ण-महिमा – पाठ का परिचय
‘कृष्ण-महिमा’ शीर्षक के अन्तर्गत संकलित चारों छन्द सुजान-रसखान से लिए गए हैं। इन चारों छन्दों से कृष्ण-भक्ति की महिमा ही प्रकट हुई है। भाव की तल्लीनता, मार्मिकता और भाषागत सरसता चारों छंदों में विद्यमान है। प्रथम छंद में अपने आराध्य कृष्ण के सान्निध्य में रहने की कवि गहरी इच्छा का संकेत मिलता है। दूसरे छंद में अपने उपास्य से जुड़े अलग-अलग उपकरणों पर सर्वस्व न्योछावर करने की चाहत व्यंजित हुई है। तीसरे छंद में कवि ने आराध्य श्रीकृष्ण के बाल रूप की माधुरी का आकर्षक वर्णन किया है। चौथे छंद में गोपी-भाव से अपने उपास्य कृष्ण की तरह ही वेश धारण करने (मुरली को छोड़कर) की तीव्र चाहत प्रकट हुई है।
कृष्ण-महिमा
(1)
मानुष हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज- गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिली कालिन्दी-कुल-कदंब की डारन॥
(2)
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर कौ तजि डारौं।
आठ हूँ सिद्धि नवों निधि को सुख, नंद की गाइ चराइ बिसारौं।
‘रसखान कबौं इन आँखिन सों ब्रज के बन-बाग तड़ाग निहारौं।’
कोटिक हौं कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
(3)
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू, तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरै अँगना, पग पैंजनीं बाजतीं पीरीं कछोटी।
वा छवि कों रसखानि बिलोकत, वारत काम कलानिधि कोटी।
काग के भाग कहा कहिये, हरि हाथ सों लै गयों माखन रोटी॥
(4)
मोर पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरे पहिरौंगी।
ओढ़ि पितम्बर, ले लकुटी बन, गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी।
भावतो वोहि मेरे ‘रसखानि, ‘ सो तेरे कहे सब स्वाँग भरौंगी।
या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरीं अधरा न धरौंगी॥
कृष्ण-महिमा – व्याख्या सहित
(1)
मानुष हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज- गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिली कालिन्दी-कुल-कदंब की डारन॥
शब्दार्थ
(1)
मानुष = मनुष्य
हौं = बनूँ
बसौं = निवास करूँगा
ग्वारन = ग्वाल लोग
पसु = पशु
बसु = वश
मेरो = मेरा
धेनु = गाय
मँझरन = बीच, मध्य
पाहन धरयौ = पत्थर धारण किया
कर = हाथ
पुरंदर = इंद्र, विष्णु
धर्यौ कर छत्र पुरंदर धारन = इंद्र के अहंकार का नाश करने के लिए कृष्ण जी गोवर्धन पर्वत को छत्र के समान धारण किया था।
जो = यदि, अगर
खग = पक्षी, चिड़िया
बसेरो = बसेरा, निवास
कालिंदी कुल-कदंब = यमुना नदी के किनारे स्थित कदंब का पेड़
डारन = डालियाँ
प्रसंग –
यह पद प्रसिद्ध भक्तकवि रसखान का है, जो भगवान कृष्ण के अनन्य प्रेमी थे। उन्होंने अपने इस पद में अपनी कृष्ण-भक्ति की चरम सीमा को बहुत ही सुंदर ढंग से व्यक्त किया है।
व्याख्या
रसखान जी कहते हैं कि यदि मैं मनुष्य बनूँ, तो ऐसा होऊँ कि ब्रज और गोकुल की ग्वालिनों के गाँव में बसूँ, जहाँ श्रीकृष्ण ने अपना बालपन बिताया। यहाँ रसखान कृष्ण के प्रेम में डूबकर कहते हैं कि यदि उन्हें मनुष्य का जीवन मिले, तो वह किसी राजा या विद्वान नहीं, बल्कि ब्रजभूमि के साधारण ग्रामीण बनना चाहेंगे।
रसखान पुनः कहते हैं कि यदि मैं पशु बनूँ, तो मुझे नंद बाबा की गायों के झुंड में होना चाहिए, और उन्हीं के साथ चरना चाहिए। अर्थात् वे चाहते हैं कि कृष्ण से जुड़ी हर चीज़ में उनका स्थान हो— एक पशु बनकर भी वे कृष्ण की सेवा ही करना चाहेंगे।
तीसरी पंक्ति में रसखान जी कहते हैं कि यदि मैं पत्थर बनूँ, तो वही पत्थर बनूँ जो गोवर्धन पर्वत बना और जिसे कृष्ण ने अपनी अंगुली पर छत्र की तरह धारण किया था। यह पंक्ति श्रीकृष्ण के गोवर्धन धारण की कथा को स्मरण करती है और रसखान की इच्छा दर्शाती है कि पत्थर भी बनें तो ऐसे पूजनीय बनें जो कृष्ण के स्पर्श में आए हों।
अंतिम पंक्ति में रसखान जी कहते हैं कि यदि मैं पक्षी बनूँ, तो यमुना के तट पर लगे कदंब के पेड़ों की डालियों पर अपना बसेरा बनाऊँ। क्योंकि कृष्ण का कदंब वृक्षों के साथ गहरा संबंध था, वे वहीं बाँसुरी बजाया करते थे। रसखान वहाँ रहकर उस मधुरता को सुनना और देखना चाहते हैं।
विशेष –
इस पद में रसखान की शुद्ध, निष्कलंक और पूर्ण समर्पित कृष्ण-भक्ति झलकती है। वे जीवन के किसी भी रूप में जन्म लें, बस उनका संबंध कृष्ण और उनकी लीलाओं से बना रहे, यही उनकी सबसे बड़ी कामना है।
(2)
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर कौ तजि डारौं।
आठ हूँ सिद्धि नवों निधि को सुख, नंद की गाइ चराइ बिसारौं।
‘रसखान कबौं इन आँखिन सों ब्रज के बन-बाग तड़ाग निहारौं।’
कोटिक हौं कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
शब्दार्थ
या = इस
लकुटी = छड़ी
अरु = और
कामरिया = कंबल
तिहूँ पुर = तीनों लोक
आठहुँ सिद्धि = योग द्वारा प्राप्त अणिमा, लघिमा, महिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, ईशित्व, वशित्व और कामावसायित्य- ये आठ प्रकार की सिद्धियाँ
नवों निधि = कुबेर की नौ निधियाँ- महापद्म, पद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुंद, कुंद, नील और खर्व
गाइ = गाय
बिसारौं = भुला दूँ
कबौं सों = कब से
तड़ाग = तालाब
निहारौं = देखूँ
कोटिक = करोड़
कलधौत के धाम = सोने-चाँदी के नगर
करील = एक प्रकार का कंटीला पौधा
कुंजन = झाड़ियाँ
वारौं = न्योछावर करूँ
प्रसंग –
यह पद महान भक्तकवि रसखान की अमर रचना है, जिसमें उन्होंने अपने हृदय की अनन्य कृष्ण-भक्ति और सांसारिक वैभव से विरक्ति को अत्यंत भावपूर्ण ढंग से व्यक्त किया है। इसमें रसखान ब्रजभूमि, श्रीकृष्ण और उनकी बाल-लीलाओं के प्रति इतनी गहरी श्रद्धा और प्रेम व्यक्त करते हैं कि वे समस्त ऐश्वर्य और सिद्धियों को भी त्यागने को तत्पर दिखते हैं।
व्याख्या –
रसखान अपनी पहली पंक्ति में कहते हैं कि यदि उन्हें केवल श्रीकृष्ण की चरवाहों जैसी सादगीपूर्ण वस्तुएँ – लाठी और कंबल – भी मिल जाएँ, तो वे तीनों लोकों का राज्य त्याग देंगे। यह त्याग की पराकाष्ठा है जो कृष्ण-प्रेम में डूबे भक्त ही कह सकते हैं।
रसखान दूसरी पंक्ति में यह कह रहे हैं कि आध्यात्मिक सिद्धियाँ और अपार धन-संपत्ति उन्हें मोह नहीं सकती, यदि उन्हें कृष्ण की गोचर भूमि पर गायें चराने का अवसर मिले।
तीसरी पंक्ति में रसखान की भक्ति की व्याकुलता को दर्शाती है। वे ब्रजभूमि के सौंदर्य का दर्शन अपनी आँखों से करने की तीव्र इच्छा रखते हैं, क्योंकि वहाँ की हर वस्तु कृष्ण की स्मृति से जुड़ी है।
अंतिम पंक्तियों में रसखान कहते हैं कि कैलाश जैसे वैभवशाली धाम भी उन्हें आकर्षित नहीं कर सकते, क्योंकि उनका मन तो केवल ब्रज की धूल, वृक्ष और झाड़ियों में ही रमता है।
विशेष –
रसखान इस पद में अपनी अलौकिक कृष्ण-भक्ति का वर्णन करते हैं। यह पद त्याग, समर्पण और प्रेममयी भक्ति का अद्वितीय उदाहरण है।
(3)
धूरि भरे अति सोभित स्यामजू, तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरै अँगना, पग पैंजनीं बाजतीं पीरीं कछोटी।
वा छवि कों रसखानि बिलोकत, वारत काम कलानिधि कोटी।
काग के भाग कहा कहिये, हरि हाथ सों लै गयों माखन रोटी॥
शब्दार्थ
सोभित = शोभित
स्यामजू = कृष्णजी
शिखा = चोटी, बंधे / गुँथे हुए बाल,
धूरि = धूल
तैसी = वैसी ही
अँगना = आँगन
पग = पाँव
पैंजनीं = झन झन बजने वाला एक प्रकार का गहना, जो पैर में पहना जाता है
कछोटी = काछनी, धोती पहनने का वह ढंग जिसमें पीछे लाँग खोंसी जाती है
पीरीं = पीली
बिलोकत = देखकर
वारत = न्योछावर कर देता है
काम = कामदेव (सौंदर्य के देवता)
कलानिधि = चन्द्रमा
कोटी = करोड़
काग = कौआ
भाग = भाग्य
कहा = क्या
हरि = कृष्णजी
प्रसंग –
यह पद प्रसिद्ध भक्तकवि रसखान द्वारा रचित है, जिनका हृदय श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं और ब्रज की रम्यता में डूबा हुआ था। इस रचना में उन्होंने बालकृष्ण की मोहक छवि का अत्यंत सजीव, सरस और भावपूर्ण चित्रण किया है। रसखान की भाषा सरल, भाव-प्रधान और चित्रात्मक है, जिससे पाठक श्रीकृष्ण की लीलाओं को मानो अपनी आँखों से देख लेता है।
व्याख्या
रसखान जी कहते हैं कि जब श्रीकृष्ण गायों को चराते हुए लौटते हैं, तो उनके शरीर पर ब्रज की धूल लगी होती है। रसखान को यह धूलयुक्त रूप अत्यंत मोहक लगता है। सिर पर जटाजूट (चोटी) से उनका बालरूप और भी सुंदर प्रतीत होता है।
दूसरी पंक्ति में श्रीकृष्ण का नटखट बालस्वरूप उभरता है — जो न केवल खाने और खेलने में रमे हुए हैं, बल्कि उनके पैरों में पैंजनियाँ और पीली कछौटी उन्हें बालरूप में अत्यंत मनोहारी बनाती हैं।
तीसरी यह पंक्ति बताती है कि कृष्ण की मोहकता ऐसी है कि वह करोड़ों कामदेवों के सौंदर्य से भी श्रेष्ठ है। रसखान कहते हैं कि उस अनुपम रूप को देखकर कोई भी अपना सबकुछ त्यागने को तैयार हो जाए।
और चतुर्थ तथा अंतिम पंक्ति बालकृष्ण की सरलता और दयालुता को दर्शाती है। वे कौए जैसे पक्षी को भी प्रेमपूर्वक भोजन दे देते हैं। रसखान यहाँ कृष्ण की करुणा और कौए के भाग्य की महानता की सराहना करते हैं।
विशेष –
इस पद में रसखान ने श्रीकृष्ण की बाल-छवि का अत्यंत भावपूर्ण और मोहक चित्र खींचा है। यह पद प्रेम, भक्ति, और सौंदर्य की अद्वितीय मिसाल है।
(4)
मोर पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरे पहिरौंगी।
ओढ़ि पितम्बर, ले लकुटी बन, गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी।
भावतो वोहि मेरे ‘रसखानि, ‘ सो तेरे कहे सब स्वाँग भरौंगी।
या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरीं अधरा न धरौंगी॥
शब्दार्थ
पखा = पंख
गुंज = घुँघची नामक लता के दाने, गुंजा
माल = माला
गरे = गले में
पहिरौंगी = पहनूँगी
पितम्बर = पीताम्बर, पीला वस्त्र
बन = जंगल
ग्वारनि = ग्वालिनों के
गोधन = गायें
भावतो वही = उन्हें अच्छा लगनेवाला
स्वांग भरौंगी = रूप/वेष बनाऊँगी
मुरली = वंशी, बाँसुरी
मुरलीधर = मुरली धारण करने वाले कृष्ण
अधरान धरी = अधरों पर रखी हुई
अधरा = होंठ
अधरान धरी अधरान न धरौंगी = कृष्णजी के द्वारा अधरों पर रखी गई बाँसुरी को अपने होंठों पर (सौतिया डाह के कारण) नहीं रखूँगी
प्रसंग –
यह पद रसखान की भक्ति-भावना, सौंदर्यबोध और श्रीकृष्ण के प्रति एकाग्र प्रेम का अत्यंत भावपूर्ण चित्र है। इसमें रसखान ने कृष्ण-प्रेम में रंगी अपनी आत्मा की कल्पना एक ब्रज गोपिका के रूप में की है, जो श्रीकृष्ण के प्रेम में अपना सर्वस्व अर्पित करना चाहती है।
व्याख्या
इस पद में गोपियाँ श्रीकृष्ण के रूप में सजने की लालसा रखी हुई हैं। रसखान कहते हैं कि गोपियाँ सिर पर मोर पंख, जो श्रीकृष्ण का प्रमुख अलंकार है, धारण करेंगी और गले में गुंजा के बीजों की माला पहनेंगी।
गोपियाँ श्रीकृष्ण की भाँति पीले वस्त्र पहनना और गायों के साथ ग्वाल-बालों की टोली में घूमना चाहती हैं। वे इस गौचारण लीला में सम्मिलित होना चाहती हैं।
रसखान कहते हैं कि जो भी कृष्ण को प्रिय है, गोपियाँ वह सब कुछ करेंगी, चाहे जो रूप धारण करना पड़े। वे अपने अहंकार और स्त्रीत्व का त्याग करके गोपिकाओं के प्रेम-स्वरूप में समर्पित हो जाना चाहते हैं।
रसखान यहाँ पर शुद्ध भक्ति का प्रतीक भाव व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं कि गोपियाँ कृष्ण के हर रूप-रंग का अनुसरण करने को तैयार हैं पर कृष्ण की बाँसुरी को वे अपने होंठों पर नहीं लगाएँगी क्योंकि ये बाँसुरी उनके सौत के समान हैं।
विशेष –
इस पद में रसखान ने गोपियों के कृष्ण-प्रेम की चरम अभिव्यक्ति की है। यह पद एक गहरी, निष्कलंक और नि:स्वार्थ प्रेम-भावना का उदात्त उदाहरण है।
मणि – कांचन संयोग – कहानी का सार
यह पाठ असम की सांस्कृतिक और धार्मिक जागरण की ऐतिहासिक घटना – श्रीमंत शंकरदेव और माधवदेव के पावन मिलन का वर्णन करता है। यह मिलन माजुलि द्वीप के धुवाहाता-बेलगुरि नामक स्थान पर हुआ, जिसे असम के इतिहास में ‘मणि-कांचन संयोग’ कहा गया है। शंकरदेव उस समय असम को तंत्र, बलि और अंधविश्वासों से मुक्त कर एकशरण नामधर्म के प्रचार-प्रसार में लगे थे। उसी समय उनके योग्य शिष्य के रूप में माधवदेव का आगमन हुआ। प्रारंभ में माधवदेव शक्ति-पूजा और बलि-विधान में विश्वास करते थे और शंकरदेव की शिक्षाओं से सहमत नहीं थे। एक दिन बकरों की बलि को लेकर हुए विवाद के बाद उनके बहनोई रामदास उन्हें शंकरदेव के पास ले गए।
दोनों में गहन शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें शंकरदेव ने भागवत का एक श्लोक उद्धृत किया — जिससे माधवदेव को आत्मबोध हुआ और उन्होंने शंकरदेव को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। इसके बाद माधवदेव ने पूरी निष्ठा से कृष्ण-भक्ति, गुरु-भक्ति और एकशरण धर्म के प्रचार-प्रसार में जीवन समर्पित कर दिया। इस महामिलन के बाद शंकरदेव ने अधिक स्वतंत्र होकर साहित्य-संगीत और धर्म प्रचार का कार्य किया, जबकि माधवदेव उनके सच्चे उत्तराधिकारी के रूप में उभरे। दोनों की रचनाएँ, जैसे शंकरदेव की कीर्तनघोषा और माधवदेव की नामघोषा, असमीया समाज में अत्यंत पूज्यनीय हैं।
अंत में, लेखक दोनों महापुरुषों की तुलना सूर्य और चंद्रमा से करता है और कहता है कि उनकी आभा से असमीया संस्कृति सदैव प्रकाशित रहेगी।
बोध एवं विचार
1.सही विकल्प का चयन करो :-
(क) रसखान कैसे कवि थे?
(1) कृष्णभक्त
(2) रामभक्त
(3) सूफी
(4) संत
उत्तर – (1) कृष्णभक्त
(ख) कवि रसखान की प्रामाणिक रचनाओं की संख्या है
(1) तीन
(2) दो
(3) चार
(4) पाँच
उत्तर – (3) चार
(ग) पत्थर बनकर कवि रसखान कहाँ रहना चाहते हैं?
(1) हिमालय पर्वत पर
(2) गोवर्धन पर्वत पर
(3) विंध्य पर्वत पर
(4 ) नीलगिरि पर
उत्तर – (2) गोवर्धन पर्वत पर
(घ) बालक कृष्ण के हाथ से कौआ क्या लेकर भागा?
(1) सूखी रोटी
(2) दाल-रोटी
(3) पावरोटी
(4) माखन – रोटी
उत्तर – (4) माखन – रोटी
- एक शब्द में उत्तर दो :-
(क) रसखान ने किनसे भक्ति की दीक्षा ग्रहण की थी?
उत्तर – रसखान ने गोकुल में गोस्वामी विट्ठलनाथ जी से भक्ति की दीक्षा ग्रहण की थी।
(ख) ‘प्रेमवाटिका’ के रचयिता कौन हैं?
उत्तर – ‘प्रेमवाटिका’ के रचयिता रसखान जी हैं।
(ग) रसखान की काव्य-भाषा क्या है?
उत्तर – रसखान की काव्य-भाषा साहित्यिक ब्रज है।
(घ) आराध्य कृष्ण का वेष धारण करते हुए कवि अधरों पर क्या धारण करना नहीं चाहते?
उत्तर – आराध्य कृष्ण का वेष धारण करते हुए कवि रसखान अधरों पर बाँसुरी धारण करना नहीं चाहते?
(ङ) किनकी गाय चराकर कवि रसखान सब प्रकार के सुख भुलाना चाहते हैं?
उत्तर – नंदबाबा की गाय चराकर कवि रसखान सब प्रकार के सुख भुलाना चाहते हैं।
- पूर्ण वाक्य में उत्तर दो :-
(क) कवि रसखान कैसे इंसान थे?
उत्तर – कवि रसखान एक भक्तिमय हृदय वाले, कृष्ण के अनन्य प्रेमी, सरल, भावुक और अत्यंत सौंदर्यबोध से युक्त इंसान थे।
(ख) कवि रसखान किस स्थिति में गोपियों के कृष्ण – प्रेम से अभिभूत हुए थे?
उत्तर – कवि रसखान श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों के निष्कलंक और समर्पित प्रेम को देखकर अभिभूत हुए और उन्होंने स्वयं को उसी प्रेम में डुबो दिया।
(ग) कवि रसखान ने अपनी रचनाओं में किन छंदों का अधिक प्रयोग किया है?
उत्तर – कवि रसखान ने अपनी रचनाओं में दोहा, सवैया और पद जैसे छंदों का अधिक प्रयोग किया है।
(घ) मनुष्य के रूप में कवि रसखान कहाँ बसना चाहते हैं?
उत्तर – मनुष्य के रूप में कवि रसखान ब्रजभूमि के गोकुल गाँव में ग्वालों के बीच बसना चाहते हैं।
(ङ) किन वस्तुओं पर कवि रसखान तीनों लोकों का राज न्योछावर करने को प्रस्तुत हैं?
उत्तर – कवि रसखान श्रीकृष्ण की गायों, उनकी बाँसुरी, मोरपंख, और वृंदावन की धूल पर तीनों लोकों का राज न्योछावर करने को प्रस्तुत हैं।
- अति संक्षिप्त उत्तर दो (लगभग 25 शब्दों में) :-
(क) कवि का नाम ‘रसखान’ किस प्रकार पूर्णत: सार्थक बन पड़ा है?
उत्तर – रसखान का नाम ‘रस’ (भाव) और ‘खान’ (खजाना) से बना है, जो उनके कृष्णप्रेम और काव्य-सौंदर्य की भावनात्मक गहराई को दर्शाता है।
(ख) ‘जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदी – कुल-कदंब की डारन’ का आशय क्या है?
उत्तर – कवि पक्षी बनकर यमुना तट के कदंब वृक्षों की डाल पर निवास करना चाहते हैं, जहाँ श्रीकृष्ण लीला करते थे।
(ग) ‘वा छबि कों रसखानि बिलोकत, वारत काम कलानिधि कोटी’ का तात्पर्य बताओ।
उत्तर – श्रीकृष्ण की मोहक छवि देखकर रसखान कहते हैं कि कामदेव की करोड़ों कलाएँ भी उस सौंदर्य के आगे फीकी लगती हैं।
(घ) “भावतो वोहि मेरे ‘रसखानि’, सो तेरे कहे सब स्वांग भरौंगी” का भाव स्पष्ट करो
उत्तर – गोपी बनकर कवि कह रहे हैं कि हे कृष्ण! जो तुम्हें अच्छा लगे, मैं वही रूप धारण करूँगी, तुम्हारे प्रेम में सब कुछ अर्पण है।
- संक्षेप में उत्तर दो (लगभग 50 शब्दों में) :-
(क) कवि रसखान अपने आराध्य का सान्निध्य किन रूपों में प्राप्त करना चाहते हैं?
उत्तर – कवि रसखान मनुष्य, पशु, पक्षी, पत्थर या किसी भी रूप में जन्म लेकर श्रीकृष्ण के सान्निध्य में रहना चाहते हैं। वे ब्रज की भूमि, कदंब वृक्ष, गायों के झुंड या यमुना के किनारे पक्षी बनकर भी श्रीकृष्ण की सेवा व दर्शन चाहते हैं।
(ख) अपने उपास्य से जुड़े किन उपकरणों पर क्या-क्या न्योछावर करने की बात कवि ने की है?
उत्तर – रसखान श्रीकृष्ण की बाँसुरी, लकुटी, पीताम्बर, मोरपंख और गोधन जैसे उपकरणों को अमूल्य मानते हैं। वे तीनों लोकों के वैभव को त्यागकर इन साधारण प्रतीकों को प्राप्त करना चाहते हैं और उन पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर रहते हैं।
(ग) कवि ने श्रीकृष्ण के बाल रूप की माधुरी का वर्णन किस रूप में किया है?
उत्तर – रसखान ने बालकृष्ण की सौंदर्य-माधुरी को धूल से सने अंग, सिर पर चोटी, पाँवों में पैंजनियाँ और हाथ में माखन-रोटी के साथ खेलते हुए चित्रित किया है। इस अनुपम छवि को देखकर वे कामदेव की कोटि-कोटि कलाओं को तुच्छ मानते हैं।
(घ) कवि ने अपने आराध्य की तरह वेश धारण करने की इच्छा व्यक्त करते हुए क्या कहा है?
उत्तर – कवि रसखान गोपियों की भाँति पीताम्बर पहनकर, गले में गुंजा की माला डालकर, हाथ में लकुटी लेकर कृष्ण के गोधन के संग वन-वन घूमने की इच्छा व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं कि जो कृष्ण को प्रिय हो, वही रूप मैं धरने को तैयार हूँ।
- सम्यक् उत्तर दो (लगभग 100 शब्दों में) :-
(क) कवि रसखान का साहित्यिक परिचय प्रस्तुत करो।
उत्तर – रसखान हिंदी भक्ति काल के प्रसिद्ध कृष्णभक्त सूफी कवि थे। इनका जन्म सोलहवीं शताब्दी में दिल्ली में एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। इनका असली नाम सैयद इब्राहीम था। वे फारसी और ब्रजभाषा के विद्वान थे। प्रेम की अनुभूति और भक्ति की भावना से ओतप्रोत उनकी रचनाएँ ब्रज की सादगी और कृष्ण की माधुरी का अद्भुत चित्रण करती हैं। वे ‘रसखान’ नाम से प्रसिद्ध हुए और श्रीकृष्ण को अपना आराध्य मानकर उनके बाल रूप, रासलीला, गोपियों के प्रेम तथा ब्रज की भूमि की महिमा का भावपूर्ण वर्णन किया। उनकी रचनाओं में प्रेम, करुणा और समर्पण की सुंदर अभिव्यक्ति है।
(ख) कवि रसखान की कृष्ण-भक्ति पर प्रकाश डालो।
उत्तर – रसखान की भक्ति निष्काम, निष्कलंक और ब्रज-भाव से ओतप्रोत है। वे मुस्लिम होकर भी श्रीकृष्ण के बालरूप, रासलीला और गोपियों के अनन्य प्रेम से अत्यंत प्रभावित हुए। उनकी भक्ति में आत्मसमर्पण की भावना प्रधान है। वे चाहते हैं कि किसी भी रूप में जन्म लें, लेकिन श्रीकृष्ण के सान्निध्य में रहें। वे कभी ग्वाला, कभी गाय, कभी वृक्ष, तो कभी पक्षी बनकर ब्रजभूमि में श्रीकृष्ण की सेवा और दर्शन की इच्छा व्यक्त करते हैं। उनकी भक्ति भावुक, सरल और हृदयस्पर्शी है, जिसमें भौतिक सुखों की कोई चाह नहीं, केवल कृष्ण प्रेम में लीन रहना ही उनका उद्देश्य है।
(ग) पठित छंदों के जरिए कवि रसखान ने क्या-क्या कहना चाहा है?
उत्तर – रसखान ने अपने छंदों में कृष्ण प्रेम की पराकाष्ठा, आत्मसमर्पण और ब्रजभूमि की महिमा को चित्रित किया है। वे कहते हैं कि वे तीनों लोकों का राज्य त्यागकर ग्वालों और गायों के संग वृंदावन में रहना पसंद करेंगे। वे श्रीकृष्ण के उपकरणों – मुरली, लकुटी, मोरपंख आदि – पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर हैं। वे अपने आराध्य की भांति वेश धारण करना चाहते हैं और चाहते हैं कि उनका जीवन किसी भी रूप में कृष्ण सेवा में लगे। बालकृष्ण की सौंदर्य-माधुरी देखकर वे कहते हैं कि करोड़ों कामदेव भी उसके आगे तुच्छ हैं।-
- सप्रसंग व्याख्या करो (लगभ 100 शब्दों में) :-
(क) ‘मनुष्य हौं तो वही …… नित नंद की धेनु मँझारन।’
उत्तर – प्रसंग –
यह पंक्तियाँ भक्ति काल के प्रसिद्ध कवि रसखान की रचना से ली गई हैं, जिनमें उन्होंने श्रीकृष्ण के प्रति अपनी भक्ति और ब्रजभूमि के प्रति आकर्षण को प्रकट किया है।
व्याख्या –
रसखान कहते हैं कि यदि वे मनुष्य बनें, तो ब्रजभूमि के ग्वालों के समान हों, जहाँ वे श्रीकृष्ण के साथ रह सकें। यदि पशु बनें, तो नंद बाबा की गौशाला की गाय बनें, जिन्हें स्वयं श्रीकृष्ण प्रेमपूर्वक चराएँ। यह पंक्ति कवि की परम भक्ति भावना का द्योतक है, जहाँ वे जन्म-मरण के चक्र में भी प्रभु के सान्निध्य की कामना करते हैं। श्रीकृष्ण की सेवा में समर्पित जीवन ही उन्हें सार्थक प्रतीत होता है।-
(ख) ‘रसखान कबौं इन आँखिन ………. करील के कुंजन ऊपर वारौं।’
उत्तर – प्रसंग –
यह पंक्तियाँ रसखान के ब्रज प्रेम और कृष्ण दर्शन की तीव्र लालसा को दर्शाती हैं।
व्याख्या –
रसखान कहते हैं कि वे करोड़ों स्वर्ग, ऐश्वर्य और सिद्धियों को छोड़कर केवल ब्रज के बन, बाग, तालाबों के दर्शन अपनी आँखों से करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि उनकी देह श्रीकृष्ण की क्रीड़ा स्थली वृंदावन के करील वृक्षों की छाया में तुच्छ होकर भी धन्य हो जाए। कवि की यह भावना उनके पूर्ण समर्पण को दर्शाती है। वे सांसारिक वैभव को तिरस्कृत कर ब्रज भूमि को ही परमधाम मानते हैं। उनका कृष्ण प्रेम गहरा, निष्कलंक और आत्मिक है।
(ग) धूरि भरे अति सोभित ……….पैंजनीं बाजतीं पीरीं कछोटी।’
उत्तर – प्रसंग –
यह पंक्तियाँ श्रीकृष्ण के बालरूप सौंदर्य और ब्रज की लोक-संस्कृति की झलक देती हैं।
व्याख्या –
रसखान ने श्रीकृष्ण के बालरूप का मनोरम चित्र प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि धूल में सना कृष्ण अत्यंत सुंदर लगते हैं, सिर पर चोटी है, अंगनाओं में खेलते और खाते फिरते हैं। उनके पैरों में पैंजनियाँ बजती हैं और पीली कछौटी (धोती) शोभा दे रही है। यह दृश्य इतना मोहक है कि रसखान कहते हैं – इस छवि को देखकर करोड़ों कामदेव भी अपना रूप त्याग दें। यह पंक्ति रसखान के कृष्ण-प्रेम की पराकाष्ठा और बालकृष्ण की आकर्षक छवि का भावपूर्ण वर्णन है।
(घ) ‘मोरा – पखा सिर ऊपर राखिहौं…… गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी। ‘
उत्तर – प्रसंग –
यह पंक्तियाँ रसखान की उस भावना को दर्शाती हैं जिसमें वे कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण के साथ स्वयं को गोपिका के रूप में भी देखना चाहते हैं।
व्याख्या –
कवि कहते हैं कि यदि उन्हें स्त्री बनना पड़े, तो वे श्रीकृष्ण की प्रिय गोपिका के रूप में जन्म लें। वे मोरपंख सिर पर, गूंजा की माला गले में पहनेंगी, पीतांबर ओढ़ेंगी और हाथ में लकुटी लेकर गाय चराते श्रीकृष्ण के संग ब्रजभूमि में विचरेंगी। वे यह भी कहते हैं कि वे मुरलीधर की मुरली को अपने अधरों पर नहीं रखेंगी, क्योंकि वह केवल श्रीकृष्ण के अधरों पर शोभा देती है। यह पंक्तियाँ रसखान के आत्मविसर्जन और माधुर्य भक्ति की साक्षात अभिव्यक्ति हैं।
भाषा एवं व्याकरण ज्ञान
(क) निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखो
मानुष, पसु, पाहन, आँख, छबि, भाग
उत्तर – मानुष – मनुष्य
पसु – पशु
पाहन – पाषाण
आँख – नेत्र
छबि – छवि
भाग – भाग्य (यदि अर्थ ‘किस्मत’ हो)
(ख) निम्नलिखित शब्दों के तीन-तीन पर्यायवाची शब्द लिखो :-
कृष्ण, कालिंदी, खग, गिरि, पुरंदर
उत्तर – कृष्ण – गोपाल, श्याम, वंशीधर
कालिंदी – यमुना, भानुजा, सूर्यतनया
खग – पक्षी, विहग, पंछी
गिरि – पर्वत, नग, भूधर
पुरंदर – इंद्र, देवराज, सुरपति
(ग) संधि-विच्छेद करो :-
पीताम्बर, अनेकानेक, इत्यादि, परमेश्वर, नीरस
उत्तर – पीताम्बर = पीत + अम्बर
(यह स्वर संधि है: “अ + अ = आ”)
अनेकानेक = अनेक + अनेक
(यह स्वर संधि है: “अ + अ = आ”)
इत्यादि = इति + आदि
(यह यण् संधि है: “इ + आ = या”)
परमेश्वर = परम + ईश्वर
(यह स्वर संधि है: “अ + ई = ए”)
नीरस = नि: + रस
(यह विसर्ग संधि है।)
(घ) निम्नलिखित शब्दों के खड़ीबोली (मानक हिंदी) में प्रयुक्त होने वाले रूप बताओ :-
मेरो, बसेरो, अरु, कामरिया, धूरि, सोभित, माल, सों
उत्तर – मेरो – मेरा
बसेरो – बसेरा
अरु – और
कामरिया – कंबल या चादर (संदर्भ अनुसार)
धूरि – धूल
सोभित – शोभित या सुशोभित
माल – माला (संदर्भ के अनुसार, जैसे गले की माला)
सों – से (तुलना या संबंध दर्शाने वाला प्रयोग)
(ङ) निम्नलिखित शब्दों के साथ भाववाचक प्रत्यय ‘ता’ जुड़ा हुआ है –
सहजता, मधुरता, सरसता, तल्लीनता, मार्मिकता
ऐसे ही ‘ता’ प्रत्यय वाले पाँच भाववाचक संज्ञा – शब्द लिखो।
उत्तर – गंभीर + ता = गंभीरता
शुद्ध + ता = शुद्धता
नम्र + ता = नम्रता
मम + ता = ममता
महान + ता = महानता
योग्यता – विस्तार
(क) पठित छंदों का सस्वर पाठ करो।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
(ख) ‘सेस गनेस महेस दिनेस सुरेसहुँ, जाहि निरंतर गावैं।
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुवेद बतावैं।
नारद से सुक व्यास रटे, पचि हारे पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥’
– कवि रसखान द्वारा रचित प्रस्तुत छंद का भावार्थ अपने शिक्षक की सहायता से समझने का प्रयास करो।
उत्तर – रसखान कहते हैं कि वह परमात्मा, जिसे ब्रह्मा (स्रष्टा), गणेश (विघ्नहर्ता), शिव (संहारक), सूर्य (प्रकाशदाता) तथा अन्य देवता निरंतर भजते हैं; जो अनादि, अनंत, अखंड, अछेद्य और अव्यक्त है, जिसे वेदों ने भी परिभाषित करने की चेष्टा की है; और जिसे जानने में नारद, शुकदेव और वेदव्यास जैसे मुनि भी असफल रहे – वही परम तत्त्व, वही परब्रह्म श्रीकृष्ण, ब्रज की गोप-बालाओं द्वारा छाछ की एक छोटी कटोरी के लिए नचाया जाता है, यानी उनके साथ प्रेमपूर्ण लीला करते हैं।
विशेष –
रसखान इस पद के माध्यम से कृष्ण के सगुण और साकार स्वरूप की महिमा बताते हैं – जो परम तत्त्व है, वही प्रेम के वशीभूत होकर गोपियों के बीच बालक बनकर खेलता है। यह भक्ति की सर्वोच्च स्थिति – प्रेम की शक्ति को दर्शाता है।
(ग) श्रीकृष्ण के बाल रूप वर्णन से संबंधित पठित छंद की तुलना कवि सूरदास द्वारा रचित निम्नलिखित पद के साथ करो :-
‘सोभित कर नवनीत लिये।
घुटुरनि चलत रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किये।
चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिये।
लट- लटकनि मनु मत्त मधुप-गन मादक मधुहिं पिए।
कठुला – कंठ बज्र केहरि – नख, राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए ॥ ‘
उत्तर – बाल कृष्ण की सजीव छवि –
सूरदास के पद में श्रीकृष्ण की बालक अवस्था का अत्यंत कोमल, मोहक और मनोहर चित्र खींचा गया है। वे “घुटुरनि चलत” हैं – घुटनों के बल चल रहे हैं, शरीर पर धूल लगी है, मुख पर दही का लेप है, गोरोचन का तिलक है, और बाल लटके हुए हैं – मानो मत्त भौंरों की तरह हैं।
रसखान के छंद में श्रीकृष्ण धूल में लथपथ होकर खेलते हुए दिखाई देते हैं, सिर पर चोटी शोभा देती है, कलाई में कंगन खनकते हैं, कमर में छोटी धोती बंधी है, और वे गली-गली घूमकर माखन-रोटी खाते हैं।
सार – दोनों ही कवियों ने बालक कृष्ण की बाल-लीलाओं का अत्यंत सजीव और आकर्षक चित्रण किया है।
- वात्सल्य और भक्ति का समन्वय –
सूरदास के पद में वात्सल्य भाव की प्रधानता है। कृष्ण की शारीरिक बनावट, उनकी चंचलता, और उनका बचपन – सब कुछ इतना मनोहारी है कि सूरदास कहते हैं कि “इस एक पल के सुख के लिए करोड़ों जन्म सार्थक हैं”।
रसखान के छंद में भी भक्ति, प्रेम और सौंदर्य का गहरा समावेश है। वे कहते हैं कि कामदेव के लिए भी वह छवि लज्जा का कारण है, और वह सौंदर्य अनगिनत कामनाओं को हर लेता है।
सार – सूरदास की वात्सल्य-भक्ति और रसखान की प्रेम-भक्ति दोनों ही कृष्ण के बाल रूप को स्वर्गिक सौंदर्य प्रदान करती हैं।
- शैली और भाषा –
सूरदास ब्रजभाषा के अमर कवि हैं। उनकी भाषा में कोमलता, अलंकार, और भावों की तरलता है। उनका पद वर्णनात्मक है और सौंदर्य में लिपटा हुआ है।
रसखान ने भी ब्रजभाषा में काव्य रचा, परंतु उनके यहाँ मुस्लिम दृष्टिकोण से भी प्रेम और भक्ति की पूर्णता दिखती है। उन्होंने भगवान को सखा, आराध्य और प्रियतम तीनों रूपों में देखा।
सार – दोनों की भाषा भावपूर्ण है, पर सूरदास का दृष्टिकोण थोड़ा अधिक माँ के वात्सल्य जैसा है, जबकि रसखान का प्रेमिका या गोपी जैसा।
निष्कर्ष –
सूरदास और रसखान – दोनों ने श्रीकृष्ण के बाल रूप की ऐसी मनोहारी कल्पना की है, जो भक्त और सौंदर्य-रसिक दोनों को रस-विभोर कर देती है। एक ओर घुटनों पर चलने वाला दही मुख पर लगाए कृष्ण हैं, तो दूसरी ओर माखन-रोटी लेकर गलियों में घूमने वाले कृष्ण।
(घ) असम के महापुरुष श्री श्री माधवदेव जी ने अपने कुछेक बरगीतों में श्रीकृष्ण के बाल रूप और उनकी बाल लीलाओं का सुंदर वर्णन किया है। ऐसे बरगीतों का संग्रह करके रसखान और सूरदास विरचित समान भाव वाले छंदों के साथ उनकी तुलना करो।
उत्तर – छात्र अपने शिक्षक से इस प्रश्न का उत्तरा पाएँ।
(ङ) अपने शिक्षक की सहायता से रसखान और मीराँबाई की कृष्ण-भक्ति की तुलना करने का प्रयास करो।
उत्तर – छात्र अपने शिक्षक से इस प्रश्न का उत्तरा पाएँ।