बिहारीलाल
कविवर बिहारीलाल हिंदी साहित्य के अंतर्गत रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। हिंदी के समस्य कवियों में भी आप अग्रिम पंक्ति के अधिकारी हैं। उन्होंने प्रमुख रूप से प्रेम-शृंगार और गौण रूप से भक्ति एवं नीति के दोहों की रचना करके अपार लोकप्रियता प्राप्त की थी। उनकी यह लोकप्रियता आज भी बनी हुई है और आगे भी बनी रहेगी।
कवि बिहारी का जन्म 1595 ई. में ग्वालियर के निकट बसुवा गोविन्दपुर नामक गाँव में हुआ था। पिता केशवराय के गुरु महन्त नरहरिदास के यहाँ बिहारी को संस्कृत और पराकृत के प्रसिद्ध काव्य-ग्रंथों के अध्ययन का अवसर प्राप्त हुआ था। तत्कालीन दरबारी भाषा फारसी में भी अधिकार प्राप्त करके वे अपनी एक फारसी रचना के साथ कलाप्रिय मुगल बादशाह शाहजहाँ से मिले थे। बिहारी की काव्य-प्रतिभा से सम्राट बड़े ही प्रसन्न हुए और उनके कृपापात्र बने। अब तो कवि बिहारी का संपर्क मुगल साम्राज्य के अधीनस्थ अन्य राजाओं से भी हुआ। कई राज्यों से उनको वृत्ति मिलने लगी। 1645 ई. के आस-पास वे वृत्ति लेने जयपुर पहुँचे थे। वहाँ के महाराज जयसिंह और चौहानी रानी के आग्रह पर कवि बिहारी जयपुर में ही रुक गए तथा प्रत्येक दोहे के लिए एक अशर्फी की शर्त पर काव्य-रचना करने लगे। 1662 ई. तक उनकी ‘सतसई’ पूरी हुई। 1663 ई. में कविवर बिहारी का देहावसान हुआ।
कवि बिहारीलाल की ख्याति का आधार उनका एकमात्र ‘सतसई’ ग्रंथ है, जो बिहारी सतसई नाम से प्रसिद्ध है। यह लगभग सात सौ दोहों का अनुपम संग्रह है। इसे शृंगार, भक्ति और नीति की त्रिवेणी भी कहते हैं। इस ग्रंथ की लोकप्रियता के संदर्भ में यूरोपीय विद्वान डॉ. ग्रियर्सन ने कहा है कि यूरोप में इसके समकक्ष कोई भी रचना नहीं है। गागर में सागर भरने के समान कविवर बिहार ने दोहे जैसे छोटे-से छंद में लंबी-चौड़ी बात भी संक्षेप में कह दी है। सरस, सुमधुर और प्रौढ़ ब्रजभाषा में रचित ये दोहे काव्य – रसिकों पर गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। इसीलिए लोकोक्ति प्रचलित है –
‘सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगै घाव करै गंभीर॥’
दोहा – दशक – पाठ का पतिचय
‘दोहा दशक’ शीर्षक के अन्तर्गत संकलित प्रथम पाँच दोहे भक्तिपरक और शेष पाँच दोहे नीतिपरक हैं। कविवर बिहारी द्वारा रचित भक्ति-नीति के दोहे संख्या की दृष्टि से कम होने पर भी भाव, भाषा और अभिव्यक्ति भंगिमा की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।
दोहा – दशक
सीस मुकुट कटि काछनी, कर मुरली उर माल।
यहि बानक मो मन बसौ, सदा बिहारीलाल॥1॥
कोऊ कोरिक संग्रहो, कोऊ लाख हजार।
मो संपति जदुपति सदा, बिपति बिदारनहार॥2॥
या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ॥3॥
जप-माला, छापैं, तिलक, सरै न एकौ कामु।
मन काँचे नाचै बृथा, साँचै राँचै रामु॥4॥
कीजै चित सोई तरे, जिहि पतितनु के साथ।
मेरे गुन- औगुन – गननु, गनौ न गोपीनाथ॥5॥
चटक न छाँड़तु घटत हूँ, सज्जन नेहु गंभीरु।
फीको परै न बरु घटै, रंग्यौं चोल रंगु चीरु॥6॥
न ए बिससिये लखि नये, दुर्जन दुसह सुभाय।
आँटे पर प्रानन हरै, काँटे लौं लगि पाय॥7॥
कनक कनक तैं सौ गुनी, मादकता अधिकाइ।
उहिं खाए बौराइ जगु। इहिं पाएँ बौराइ॥8॥
मीत न नीत गलीत है, जो धरियै धन जोरि।
खाएँ खरचैं जो जुरै, तो जोरिए करोरि॥9॥
ओछे बड़े न ह्वै सकैं, लगौ सतर है गैन।
दीरघ होंहि न नैंक हूँ, फारि निहारै नैन॥10॥
दोहा – दशक – व्याख्या सहित
01
सीस मुकुट कटि काछनी, कर मुरली उर माल।
यहि बानक मो मन बसौ, सदा बिहारीलाल॥1॥
शब्दार्थ
सीस = सिर
कटि = कमर
काछनी = पीतांबर, घुटनों तक पहनी हुई धोती
कर = हाथ
माल = माला, हार, वैजयंती माला
उर = छाती, हृदय, वक्षस्थल
बानक = वेश, रूप, बनाव
मो = मेरा
बसौ = निवास कीजिए, बसा हुआ है
बिहारीलाल = कृष्ण, कवि का नाम
व्याख्या
कवि बिहारी श्रीकृष्ण के अनुपम रूप का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वह प्रभु के उस दिव्य स्वरूप में मोहित हैं जिसमें उनके सिर पर मुकुट है, कमर में काछनी (पीताम्बर) बंधी है, हाथ में बाँसुरी है और छाती पर सुंदर माला है। कवि की प्रबल इच्छा है कि ऐसा मनोहर रूप वाला बिहारीलाल (श्रीकृष्ण) सदा के लिए उसके हृदय में निवास करें। वह किसी भौतिक वस्तु की कामना नहीं करता, केवल प्रभु के सौंदर्य और भक्ति से जुड़ना चाहता है।
02
कोऊ कोरिक संग्रहो, कोऊ लाख हजार।
मो संपति जदुपति सदा, बिपति बिदारनहार॥2॥
शब्दार्थ
कोऊ = कोई
कोरिक = करोड़
संग्रहो = संग्रह / एकत्र करना मेरी
मो = मेरी
संपति = संपत्ति
जदुपति = यदुपति, कृष्ण
बिपति = विपत्ति, विपदा
बिदारनहार = नष्ट / दूर करने वाला
व्याख्या
यह दोहा अत्यंत सुंदर भक्ति भाव से ओत-प्रोत है, जिसमें कवि बिहारी ने श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम, भक्ति के महत्त्व, जीवन के व्यावहारिक संकेत और नीति-संहिताओं को सुंदरता से पिरोया है। लोग चाहे जितना भी धन इकट्ठा करें – कुछ कौड़ियाँ, लाखों या हजारों – पर मेरी असली संपत्ति तो श्रीकृष्ण हैं, जो हर संकट में रक्षा करते हैं। यह सच्चे भक्त के भाव हैं, जो भौतिक संपत्ति को त्यागकर ईश्वर को ही अपना सबसे बड़ा धन मानता है।
03
या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ॥3॥
शब्दार्थ
या = इस
अनुरागी = अनुरगगमयी, प्रेमी, लाल
चित्त = हृदय
गति = स्वभाव
नहिं = नहीं
बूड़ै = डूबता है
स्याम = कृष्ण, काला
उज्जलु = उज्ज्वल, पवित्र, श्वेत
व्याख्या
कवि इस दोहे में कहते हैं कि प्रेम में डूबे मन की स्थिति को कोई समझ नहीं सकता। जैसे-जैसे मन श्रीकृष्ण की भक्ति में डूबता है, वैसे-वैसे वह और अधिक निर्मल और पवित्र होता जाता है। यह भक्ति की पराकाष्ठा का चित्र है, जहाँ प्रेम ही आत्मा का शुद्धीकरण करता है।
04
जप-माला, छापैं, तिलक, सरै न एकौ कामु।
मन काँचे नाचै बृथा, साँचै राँचै रामु॥4॥
शब्दार्थ
जप = मंत्र का स्मरण
छापैं = शरीर के किसी अंग पर चित्र बना लेना
तिलक = टीका, मस्तक पर चंदन आदि का चिह्न लगाना
सरै = सिद्ध होना
न = नहीं
एकौ = एक भी
कामु = काम, कार्य
काँचै = कच्चा, काँच का, चंचल
बुथा = बेकार
साँचै = सच्चा, साँचा, दृढ़
राँचै = निचस करके प्रसन्न होता है
रामु = रामजी, आराध्य
व्याख्या
बिहारी जी इस दोहे में कहते हैं कि यदि मन सच्चा नहीं है तो बाहरी प्रतीकों जैसे माला, तिलक, वेश से कुछ नहीं होता। कच्चा मन तो इधर-उधर भटकता है। ईश्वर को वही प्रिय होता है जो सच्चा होता है, न कि जो केवल दिखावा करता है। कवि यहाँ यह भी कहते हैं कि सच्चे मन में ही ईश्वर का वास होता है।
05
कीजै चित सोई तरे, जिहि पतितनु के साथ।
मेरे गुन- औगुन – गननु, गनौ न गोपीनाथ॥5॥
शब्दार्थ
कीजै = कीजिए, करुणा लाइए
चित = चित्त/हृदय में
सोई = वही
तरे = उद्धार हो
जिहि पतितनु के साथ = जैसा बर्ताव अन्य पापियों के साथ किया
गुन = गुण, अच्छाई
औगुन = अवगुण, दोष, बुराई
गननु = समूहों को
गनौ न = न गिनिए, गणना मत कीजिए
गोपीनाथ = गोपियों के नाथ श्रीकृष्ण
व्याख्या
कवि कहते हैं कि चित उसी प्रभु में लगाना चाहिए जो पतित अर्थात् गिरे हुए चरित्र वाले मनुष्यों को भी तार देता है। बिहारी जी कहते हैं कि गोपीनाथ मेरे गुण और अवगुणों की गिनती नहीं करते – वे केवल कृपा करते हैं। यह भक्ति का भाव है जहाँ भक्त अपने दोषों को जानकर भी प्रभु की दया में विश्वास रखता है प्रभु उस पर अवश्य कृपा करते हैं। 06
चटक न छाँड़तु घटत हूँ, सज्जन नेहु गंभीरु।
फीको परै न बरु घटै, रंग्यौं चोल रंगु चीरु॥6॥
शब्दार्थ
चटक = चमक, सहानुभूति
न छाँड़तु = नहीं छोड़ता
घटत हूँ = गंभीरता घटने पर भी
सज्जन = सत्पुरुष
नेहु = स्नेह, प्यार
गंभीरु = गंभीरता, गहराई
फीको परे न = फीका नहीं पड़ता, निष्प्रभ नहीं होता
बरु = भले ही
घटे = ह्रास हो, फट जाए
रंग्यौ = रँगा हुआ
चोल = मंजिष्ठ, मंजीठ
रंगु = रंग से
चीरु = चीर, वस्त्र, कपड़ा
व्याख्या
बिहारी जी इस दोहे में यह कहते हैं कि सज्जनों का प्रेम गहरा होता है – वह घटने पर भी टूटता नहीं और न ही उसका प्रभाव फीका पड़ता है। जैसे मँजीठ के रंग में रँगा हुआ वस्त्र फट भले ही जाए, किंतु फीका नहीं पड़ता, वैसे ही सच्चा प्रेम अटूट होता है।
07
न ए बिससिये लखि नये, दुर्जन दुसह सुभाय।
आँटे पर प्रानन हरै, काँटे लौं लगि पाय॥7॥
शब्दार्थ
न ए बिससिये = इन पर विश्वास न कीजिए
लखि नये = देखकर, देखते ही
दुर्जन = दुष्ट लोग
दुसह = दुस्सह
सुभाय = स्वभाव
आँटे पर = अंटे/दुःख में पड़ने पर, अवसर मिलने पर
प्रानन हरै = प्राणों का हरण करते हैं
कॉटै = काँटा
लौं = की तरह, के समान
लगि पाय = पाँव / पैर में चुभकर
व्याख्या
बिहारी जी इस दोहे में कहते हैं कि नए लोगों पर, विशेषकर दुर्जनों पर, जल्दी विश्वास नहीं करना चाहिए। भले ही ऐसा प्रतीत हो कि वे सुधर गए हैं पर उनका स्वभाव इतना कठिन और कपटी होता है कि वे ऊपर से मीठे दिखते हैं पर भीतर से घातक होते हैं। ऐसे लोगों पर विश्वास करने का अर्थ है कि घात लगने पर ये काँटे के समान पैर में लगकर प्राण ही ले लेते हैं।
08
कनक कनक तैं सौ गुनी, मादकता अधिकाइ।
उहिं खाए बौराइ जगु। इहिं पाएँ बौराइ॥8॥
शब्दार्थ
(8)
= नम्र होते हुए
कनक = सोने / स्वर्ण में, धन-संपत्ति में
कनक तैं = धतूरे से
मादकता = उन्मत्तता, बावलापन, पागल बनाने की क्षमता
अधिकाइ = अधिक, ज्यादा होती है
उहिं = उसे, धतूरे को
खाए = खाने पर
बौराए = पागल होता है
जगु = जगत, दुनिया
इहिं = इसे सोने को
पाएँ = पाने पर ही
बौराड = पागल हो / अहंकार से भर जाता है
व्याख्या
बिहारी जी का यह दोहा सर्वाधिक प्रचलित है। यहाँ ‘कनक’ एक शब्द है, जिसका अर्थ सोना भी है और एक मादक जड़ी जिसे धतूरा कहते हैं वह भी। कवि कहते हैं कि कनक अर्थात् धतूरा खाने से आदमी बौरा जाता है पर यदि किसी मनुष्य को कनक अर्थात् अथाह सोना मिल जाए तो वह धतूरे के नशे से भी ज़्यादा बौरा जाता है। यह लोभ और नशे के दुष्प्रभाव की चेतावनी है।
09
मीत न नीत गलीत है, जो धरियै धन जोरि।
खाएँ खरचैं जो जुरै, तो जोरिए करोरि॥9॥
शब्दार्थ
मीत = मित्र, दोस्त
न नीत = नीति नहीं है
गलीत हवै = दुर्दशाग्रस्त होने पर भी
जो धरियै = जो रखा जाए
धन जोरि = धन / रुपये-पैसे का संचय करके
खाए खरचैं जो जुरै = खाने और खर्च करने के बाद अगर बच जाए
तौ = तो, उस स्थिति में
जोरिए = संचय कीजिए
करोरि = करोड़ की संख्या में
व्याख्या
बिहारी जी कहते हैं कि जो मित्र केवल धन देखकर बनते हैं, वे न मित्र होते हैं, न नीति पर टिके रहते हैं। सच्चे मित्र वे हैं जो साथ खाएँ, खर्च करें और जरूरत में साथ दें – ऐसे मित्र करोड़ों में एक होते हैं।
10
ओछे बड़े न ह्वै सकैं, लगौ सतर है गैन।
दीरघ होंहि न नैंक हूँ, फारि निहारै नैन॥10॥
शब्दार्थ
(10)
ओछे = छोटा / निकृष्ट व्यक्ति, नीचे स्वभाव वाला
बड़े = बड़ा, महान
न ह्वै सकैं = नहीं हो सकता
लगौ = लग जाए, छू ले
सतर ह्वै = ऊँचा होकर, बढ़ कर
गैन = गगन, आकाश
दीरघ = दीर्घ, बड़ा, विशाल
होंहि न = हो नहीं पाता
नैंक हूँ = कभी भी
फारि निहारै = फाड़ कर देखा जाए, बड़ा करके देखा जाए
नैन = नयन, आँख
दीरघ होंहि …. निहारे नैन = आँखों को भले ही फाड़कर देखा जाए परंतु वे कभी भी अपने स्वाभाविक आकार से बड़ी नहीं हो पातीं।
व्याख्या
बिहारी जी कहते हैं कि नीच सोच वाला व्यक्ति कभी भी ऊँचा नहीं बन सकता। भले ही कोई ओछा व्यक्ति ऊँचे स्थान पर खड़ा होकर बड़ी-बड़ी बातें करें पर वह रहता है छोटा ही वैसे ही आँखों को भले ही फाड़कर देखा जाए परंतु वे कभी भी अपने स्वाभाविक आकार से बड़ी नहीं हो पातीं। अतः हमें ओछे व्यक्तियों के झाँसे में नहीं आना चाहिए।
बोध एवं विचार
- सही विकल्प का चयन करो :-
(क) कवि बिहारीलाल किस काल के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं?
(1) आदिकाल के
(2) रीतिकाल के
(3) भक्तिकाल के
(4) आधुनिक काल के
उत्तर – (2) रीतिकाल के
(ख) कविवर बिहारी की काव्य-प्रतिभा से प्रसन्न होने वाले मुगल सम्राट थे –
(1) औरंगजेब
(2) अकबर
(3) शाहजहाँ
(4) जहाँगीर
उत्तर – (3) शाहजहाँ
(ग) कवि बिहारी का देहावसान कब हुआ?
(1) 1645 ई. को
(2) 1660 ई. को
(3) 1662 ई. को
(4) 1663 ई को
उत्तर – (4) 1663 ई को
(घ) श्रीकृष्ण के सिर पर क्या शोभित है?
(1) मुकुट
(2) पगड़ी
(3) टोपी
(4) चोटी
उत्तर – (1) मुकुट
(ङ) कवि बिहारी ने किन्हें सदा साथ रहने वाली संपत्ति माना है?
(1) राधा को
(2) श्रीराम को
(3) यदुपति कृष्ण को
(4) लक्ष्मी को
उत्तर – (3) यदुपति कृष्ण को
- निम्नलिखित कथन शुद्ध हैं या अशुद्ध, बताओ :-
(क) हिंदी के समस्त कवियों में भी बिहारीलाल अग्रिम पंक्ति के अधिकारी हैं।
उत्तर – शुद्ध
(ख) कविवर बिहारी को संस्कृत और प्राकृत के प्रसिद्ध काव्य-ग्रंथों के अध्ययन का अवसर प्राप्त नहीं हुआ था।
उत्तर – अशुद्ध
(ग) 1645 ई. के आस-पास कवि बिहारी वृत्ति लेने जयपुर पहुँचे थे।
उत्तर – शुद्ध
(घ) कवि बिहारी के अनुसार ओछा व्यक्ति भी बड़ा बन सकता है।
उत्तर – अशुद्ध
(ङ) कवि बिहारी का कहना है कि दुर्दशाग्रस्त होने पर भी धन का संचय करते रहना कोई नीति नहीं है।
उत्तर – शुद्ध
- पूर्ण वाक्य में उत्तर दो :-
(क) कवि बिहारी ने मुख्य रूप से कैसे दोहों की रचना की है?
उत्तर – कवि बिहारी ने मुख्य रूप से प्रेम-श्रृंगार के दोहों की रचना की है, और गौण रूप से भक्ति एवं नीति संबंधी दोहे भी रचे हैं।
(ख) कविवर बिहारी किनके आग्रह पर जयपुर में ही रुक गए?
उत्तर – कविवर बिहारी महाराज जयसिंह और चौहानी रानी के आग्रह पर जयपुर में ही रुक गए।
(ग) कवि बिहारी की ख्याति का एकमात्र आधार-ग्रंथ किस नाम से प्रसिद्ध है।
उत्तर – कवि बिहारी की ख्याति का एकमात्र आधार ग्रंथ ‘बिहारी सतसई’ नाम से प्रसिद्ध है।
(घ) किसमें किससे सौ गुनी अधिक मादकता होती है?
उत्तर – सोने (कनक) में धतूरा (कनक) की अपेक्षा सौ गुनी अधिक मादकता होती है।
(ङ) कवि ने गोपीनाथ कृष्ण से क्या-क्या न गिनने की प्रार्थना की है?
उत्तर – कवि ने गोपीनाथ कृष्ण से अपने गुण और अवगुण की गणना न करने की प्रार्थना की है।
- अति संक्षेप्त में उत्तर दो (लगभग 25 शब्दों में) :-
(क) किस परिस्थिति में कविवर बिहारी काव्य-रचना के लिए जयपुर में ही रुक गए थे?
उत्तर – महाराज जयसिंह और चौहानी रानी के आग्रह तथा एक दोहे के लिए एक अशर्फी की शर्त पर बिहारी जयपुर में काव्य-रचना हेतु रुक गए।
(ख) ‘यहि बानक मो मन बसौ, सदा बिहारीलाल’ का भाव क्या है?
उत्तर – कवि कहते हैं कि वे श्रीकृष्ण की उस मोहक छवि में सदा के लिए अपने मन को लगाना चाहते हैं।
(ग) ‘ ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होई’ – का आशय स्पष्ट करो।
उत्तर – जैसे-जैसे भक्त श्रीकृष्ण के प्रेम में डूबता है, वैसे-वैसे उसका हृदय और जीवन शुद्ध एवं पावन होता जाता है।
(घ) ‘आँटे पर प्रानन हरै, काँटे लौं लगि पाय’ – के जरिए कवि क्या कहना चाहते हैं?
उत्तर – कवि कहना चाहते हैं कि दुर्जन व्यक्ति ऊपर से भले दिखें, लेकिन भीतर से अत्यंत घातक और नुकसानदेह होते हैं।
(ङ) ‘मन काँचै नाचै बृथा, साँचै राँचै राम’ का तात्पर्य बताओ
उत्तर – अगर मन अस्थिर हो तो बाहरी साधन व्यर्थ हैं, परंतु यदि मन ईश्वर में स्थिर हो तो वही सच्ची साधना है।
- संक्षिप्त में उत्तर दो (लगभग 50 शब्दों में) :-
(क) कवि के अनुसार अनुरागी चित्त का स्वभाव कैसा होता है?
उत्तर – कवि के अनुसार अनुरागी चित्त की गति को कोई नहीं समझ सकता। जैसे-जैसे वह श्रीकृष्ण के प्रेम में डूबता जाता है, वैसे-वैसे उसका हृदय और जीवन और अधिक उज्ज्वल, निर्मल एवं पावन होता जाता है। यह प्रेम अत्यंत गूढ़ और अलौकिक होता है, जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है।
(ख) सज्जन का स्नेह कैसा होता है?
उत्तर – सज्जनों का स्नेह बहुत ही गंभीर और चिरस्थायी होता है। वह स्नेह चटकता नहीं, चाहे कितना भी कम क्यों न हो जाए। जैसे रंग में पूरी तरह रंगा हुआ मंजीठ वस्त्र फीका नहीं पड़ता, वैसे ही सज्जन का प्रेम सच्चा, गहरा और अटूट होता है, जो सच्चे हृदय से किया जाता है।
(ग) धन के संचय के संदर्भ में कवि ने कौन-सा उपदेश दिया है?
उत्तर – कवि का कहना है कि यदि धन को केवल जोड़कर रखा जाए, बिना उचित उपयोग के, तो वह व्यर्थ है। सच्चा धन वही है जो उपयोग में आए, खाया और खर्च किया जाए। यदि ऐसा किया जाए, तो धन से अनेक लाभ मिलते हैं और उसका संचय सार्थक सिद्ध होता है।
(घ) दुर्जन के स्वभाव के बारे में कवि ने क्या कहा है?
उत्तर – कवि के अनुसार दुर्जन व्यक्ति ऊपर से चाहे जितना ही सज्जन प्रतीत हो, उसका स्वभाव भीतर से क्रूर और घातक होता है। जैसे पैर में चुभा काँटा प्राण हर लेता है, वैसे ही दुर्जन व्यक्ति भी सहज ही अहित कर सकता है। उससे सतर्क रहना आवश्यक है।
(ङ) कवि बिहारी किस वेश में अपने आराध्य कृष्ण को मन में बसा लेना चाहते हैं?
उत्तर – कवि बिहारी अपने आराध्य श्रीकृष्ण को उस वेश में मन में बसाना चाहते हैं जिसमें उनके सिर पर मुकुट हो, कमर में काछनी बँधी हो, हाथ में बाँसुरी हो और गले में फूलों की माला हो। यह उनका अत्यंत मोहक और बालरूप है, जो हृदय को आकर्षित करता है।
(च) अपने उद्धार के प्रसंग में कवि ने गोपीनाथ कृष्णजी से क्या निवेदन किया है?
उत्तर – कवि बिहारी गोपीनाथ से निवेदन करते हैं कि वे उनके गुण और अवगुण की गणना न करें। वह कहते हैं कि यदि प्रभु पतित देह वालों का उद्धार करते हैं, तो उन्हें भी अपनी शरण में ले लें। यह भक्ति और विनम्रता का गहरा भाव दर्शाता है।
(छ) कवि बिहारी की लोकप्रियता पर एक संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत करो।
उत्तर – कवि बिहारी रीतिकाल के महान कवि माने जाते हैं। उनकी ‘सतसई’ में संक्षिप्त रूप में गूढ़ भावों की सुंदर प्रस्तुति है। प्रेम, भक्ति और नीति के दोहों ने उन्हें चिरस्थायी लोकप्रियता दिलाई। उनकी भाषा ब्रजभाषा है, जो सरस, प्रौढ़ और भावपूर्ण है। उनके दोहे आज भी लोगों को प्रभावित करते हैं।
- सम्यक् उत्तर दो (लगभग 100 शब्दों में) :-
(क) कवि बिहारीलाल का साहित्यिक परिचय दो।
उत्तर – कवि बिहारीलाल रीतिकालीन हिंदी साहित्य के सर्वोच्च कवियों में माने जाते हैं। उनका जन्म 1595 ई. में ग्वालियर के निकट बसुवा गोविन्दपुर गाँव में हुआ था। वे संस्कृत, प्राकृत और फारसी में भी निपुण थे। उन्होंने मुख्यतः प्रेम-शृंगार, भक्ति और नीति विषयों पर दोहों की रचना की। उनकी काव्य-प्रतिभा से मुगल सम्राट शाहजहाँ तथा कई राजाओं ने उन्हें सम्मानित किया। उनकी प्रसिद्ध कृति ‘बिहारी सतसई’ है, जो आज भी हिंदी साहित्य का गौरव है।
(ख) ‘बिहारी सतसई’ पर एक टिप्पणी लिखो।
उत्तर – ‘बिहारी सतसई’ कवि बिहारी की एकमात्र और अमर काव्यकृति है, जिसमें लगभग सात सौ दोहे संग्रहीत हैं। इसमें शृंगार, भक्ति और नीति की त्रिवेणी देखने को मिलती है। यह रचना ब्रजभाषा में रची गई है और इसका प्रत्येक दोहा भाव, भाषा और कलात्मकता की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। इसमें संक्षिप्त रूप में गूढ़ भावों को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है। यूरोपीय विद्वान ग्रियर्सन ने इसकी तुलना यूरोप की किसी भी श्रेष्ठ रचना से श्रेष्ठ कही है।
(ग) कवि बिहारी ने अपने भक्तिपरक दोहों के माध्यम से क्या कहा है? पठित दोहों के आधार पर स्पष्ट करो।
उत्तर – कवि बिहारी ने अपने भक्तिपरक दोहों में श्रीकृष्ण भक्ति को सरल, सच्चे और निश्छल हृदय से जोड़ते हुए दर्शाया है। उन्होंने बताया है कि केवल बाह्य साधन जैसे जप-माला, तिलक आदि से ईश्वर प्राप्त नहीं होते, बल्कि सच्चे मन और भावना से ही भगवान श्रीकृष्ण हृदय में बसते हैं। उन्होंने अपने आराध्य को सुंदर वेश में मन में बसाने और अपने गुण-अवगुण की गिनती न करने का निवेदन करते हुए भक्ति में विनम्रता और समर्पण की भावना दिखाई है।
(घ) पठित दोहों के आधार पर बताओ कि कवि बिहारी के नीतिपरक दोहों का प्रतिपाद्य क्या है?
उत्तर – कवि बिहारी के नीतिपरक दोहों का प्रतिपाद्य जीवन के अनुभवों और व्यवहारिक ज्ञान पर आधारित है। उन्होंने सज्जनों के प्रेम की गंभीरता, दुर्जनों की पहचान, धन के उपयोग का महत्त्व और सच्ची मित्रता की कसौटी को सरल और प्रभावशाली भाषा में प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि ओछे व्यक्ति बड़े नहीं हो सकते, दुर्जनों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए, और धन को संचय करने से अधिक उपयोग करना आवश्यक है। उनके नीति-दोहों में व्यावहारिक जीवन की सीख मिलती है।
- सप्रसंग व्याख्या करो (लगभग 100 शब्दों में) :-
(का) ‘कोऊ कोरिक संग्रह …………….. बिपति बिदारनहार॥ ‘
उत्तर – प्रसंग – यह दोहा कवि बिहारीलाल के भक्तिपरक दोहों में से है।
व्याख्या – इसमें वे कहते हैं कि कुछ लोग धन, वस्तुएँ, और धन-सम्पत्ति इकट्ठी करने में लगे रहते हैं, लेकिन मेरे लिए सबसे बड़ी सम्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण हैं। वे संकटों को दूर करने वाले हैं और सदैव मेरे रक्षक हैं। इस दोहे में भौतिक सम्पत्ति की तुलना में ईश्वरीय प्रेम और भक्ति को श्रेष्ठ बताया गया है। यह दोहा ईश्वर में अटूट विश्वास, भक्ति और समर्पण की भावना को दर्शाता है।
(ख) ‘जय-माला, छापैं, तिलक …………….. साँचै राँचै रामु॥’
उत्तर – प्रसंग – यह दोहा दिखावटी भक्ति पर कटाक्ष करता है।
व्याख्या – कवि कहते हैं कि केवल जप-माला फेरना, छाप लगाना या तिलक करना कोई भी सार्थक भक्ति नहीं है। यदि मन सच्चे भाव से ईश्वर में लीन नहीं है, तो ये सब क्रियाएँ व्यर्थ हैं। मन यदि कच्चा और अस्थिर है, तो वह व्यर्थ में नाचता रहता है, लेकिन यदि मन सच्चा हो तो सच्चा राम उसी में बसते हैं। यह दोहा सच्चे मन और आंतरिक श्रद्धा की महत्ता को बताता है।
(ग) ‘कनक कनक तैं सौ गुनी ……….. इहिं पाएँ बौराइ॥’
उत्तर – प्रसंग – यह दोहा नीतिपरक है, जिसमें कवि ने ‘कनक’ शब्द की दो अर्थों में सुंदर व्यंजना की है
व्याख्या – कवि ने ‘कनक’ शब्द की दो अर्थों में सुंदर व्यंजना की है — सोना और नशा। वे कहते हैं कि नशा (कनक) सोने (कनक) से सौ गुना अधिक मादक होता है। जैसे नशा करने वाला अपना विवेक खो देता है, वैसे ही सोने यानी धन को पाने वाला भी पागल हो जाता है। यह दोहा लोभ, लालच और मादकता की प्रवृत्तियों पर तीखा व्यंग्य करता है और संयम का संदेश देता है।
(घ) ओछे बड़े न वै सकैं …………….. फारि निहारै नैन॥’
उत्तर – प्रसंग – यह दोहा समाज की वास्तविकता को उजागर करता है।
व्याख्या – कवि कहते हैं कि ओछे अर्थात् नीच स्वभाव के लोग चाहे किसी बड़े पद पर पहुँच जाएँ, वे बड़े नहीं कहलाते। जैसे गायों के बीच बैठा गधा लंबा तो लगता है, पर वह दीर्घता नहीं, भद्दापन बन जाता है। ऐसे लोग चाहे जितना ऊपर उठ जाएँ, उनकी ओछी दृष्टि और व्यवहार उन्हें नीचा ही बनाए रखते हैं। यह दोहा सच्चे गुणों और स्वभाव की महत्ता बताता है।
भाषा एवं व्याकरण ज्ञान
(क) संधि-विच्छेद करो :-
देहावसान, लोकोक्ति, उज्ज्वल, सज्जन, दुर्जन
उत्तर – देहावसान – देह + अवसान
लोकोक्ति – लोक + उक्ति
उज्ज्वल – उत् + ज्वल
सज्जन – सत् + जन
दुर्जन – दु: + जन
(ख) विलोम शब्द लिखो :-
अनुराग, पाप, गुण, प्रेम, सज्जन, मित्र, गगन, श्रेष्ठ
उत्तर – अनुराग – विराग / द्वेष
पाप – पुण्य
गुण – दोष
प्रेम – घृणा
सज्जन – दुर्जन
मित्र – शत्रु
गगन – पाताल / भूमि
श्रेष्ठ – निकृष्ट
(ग) निम्नलिखित दोहों को खड़ीबोली (मानक हिंदी ) गद्य में लिखो :-
मीत न नीत गलीत ह्वै, जो धरियै धन जोरि।
खाए खरचैं जो जुरै, तौ जोरिए करोरि ॥
उत्तर – जिस व्यक्ति को केवल धन के बल पर मित्र बनाया जाए, उसमें न तो सच्चा मित्रभाव होता है और न ही वह नीति का पालन करता है। यदि कोई व्यक्ति धन कमाकर खाता और खर्च करता है, तो उसी से मित्रता करनी चाहिए और ऐसे सज्जनों को करोड़ों बार जोड़ना चाहिए।
नए बिससिये लखि नये, दुर्जन दुसह सुभाय।
ऑटे पर प्रानन हरै, काँटे लौं लगि पाय ॥
उत्तर – दुर्जन व्यक्ति का स्वभाव बहुत ही असहनीय होता है, इसलिए उसे देखकर तुरंत विश्वास नहीं करना चाहिए, चाहे वह नया रूप क्यों न धारण कर ले। जैसे काँटा दिखने में बहुत छोटा होता है, लेकिन उसमें छिपा शुल पैरों को घायल कर देता है, वैसे ही दुर्जन व्यक्ति बाहर से भले लगे, पर भीतर से हानिकारक होता है।
(घ) निम्नलिखित समस्त पदों का विग्रह करके समास का नाम बताओ :-
सतसई, गोपीनाथ, गुन-औगुन, काव्य-रसिक, आजीवन
उत्तर – सतसई – विग्रह: सात सौ (दोहों का संकलन) द्विगु समास
गोपीनाथ – विग्रह: गोपी के नाथ (स्वामी) बहुब्रीहि समास
गुन-औगुन – विग्रह: गुण और अवगुण, द्वंद्व समास
काव्य-रसिक – विग्रह: काव्य का रसिक (प्रेमी) तत्पुरुष समास
आजीवन – विग्रह: जीवन भर – अव्ययीभाव समास
(ङ) अंतर बनाए रखते हुए निम्नलिखित शब्द-जोड़ों के अर्थ बताओ :-
कनक-कनक, हार-हार, स्नेह-स्नेह, हल-हल, कल-कल
उत्तर – कनक-कनक
पहला ‘कनक’ का अर्थ है – सोना (धातु)
दूसरा ‘कनक’ का अर्थ है – धतूरा (एक नशीला फल)
हार-हार
पहला ‘हार’ का अर्थ है – माला (गले में पहनने वाली)
दूसरा ‘हार’ का अर्थ है – पराजय (हार जाना)
स्नेह-स्नेह
पहला ‘स्नेह’ का अर्थ है – ममता, प्रेम
दूसरा ‘स्नेह’ का अरथा है तेल
हल-हल
पहला ‘हल’ का अर्थ है – कृषि का औजार
दूसरा ‘हल’ का अर्थ है – समाधान
कल-कल
पहले ‘कल’ का अर्थ है आने वाला या बिता हुआ दिन
दूसरे ‘कल’ का अर्थ है मशीन
योग्यता – विस्तार
(क) पठित दोहों को कंठस्थ करके अपने माता-पिता को सुनाओ।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
(ख) कवि बिहारीलाल द्वारा रचित अन्य दोहों का संग्रह करके कक्षा में अंत्याक्षरी का खेल खेलो।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
(ग) ‘ ज्यों-ज्यों बुड़े स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होई॥’
– उपरोक्त काव्य – पंक्तियों में आए अलंकारों के बारे में अपने शिक्षक से जानकारी प्राप्त करो।
उत्तर – अलंकार – विपर्यास अलंकार (या विरोधाभास अलंकार)
स्पष्टीकरण –
इस पंक्ति में विरोधाभास का सौंदर्यपूर्ण प्रयोग हुआ है। सामान्यतः “बूड़ना” यानी डूबना या रंग में रंगना गाढ़ेपन की ओर संकेत करता है, लेकिन यहाँ कहा गया है कि जितना वह स्याम (कृष्ण) रंग में डूबता है, उतना ही उज्ज्वल (चमकदार/पवित्र) होता जाता है। यह विपरीत अर्थों को साथ रखकर विशेष प्रभाव उत्पन्न करता है, इसलिए यह विपर्यास अलंकार है।
‘कनक कनक तैं सौ गुनी, मादकता अधिकाइ।’
– उपरोक्त काव्य – पंक्तियों में आए अलंकारों के बारे में अपने शिक्षक से जानकारी प्राप्त करो।
उत्तर – अलंकार – श्लेष अलंकार
स्पष्टीकरण –
यहाँ ‘कनक’ शब्द दो बार आया है, लेकिन दोनों बार उसका अर्थ अलग है —
पहले ‘कनक’ का अर्थ है सोना
दूसरे ‘कनक’ का अर्थ है धतूरा (एक नशीला फल)
एक ही शब्द के दो भिन्न अर्थों का एक ही पंक्ति में सुंदरता से प्रयोग श्लेष अलंकार कहलाता है।
(घ) ‘दोहा’ छंद की विशेषता के बारे में अपने शिक्षक से जान लो।
उत्तर – दोहा‘ छंद की विशेषताएँ –
छंद की रचना-रूप
दोहा एक स्वतंत्र छंद है, जो दो पंक्तियों (चरणों) का होता है।
प्रत्येक पंक्ति में 13 और 11 मात्राएँ होती हैं।
इस प्रकार, दोहे की कुल मात्राएँ 24-24 (13+11) होती हैं।
तुकांत व्यवस्था
दोहे में प्रथम और द्वितीय चरण में अंत में तुकांत होता है, जिससे लय और संगीतात्मकता आती है।
भाव-गहनता
दोहे में कम शब्दों में गहन अर्थ प्रकट करने की क्षमता होती है।
इसे “गागर में सागर” भरने जैसा माना जाता है।
लोकप्रियता
दोहा छंद संत कवियों (कबीर, रहीम, तुलसी, बिहारी आदि) में बहुत लोकप्रिय रहा है।
नीति, भक्ति, प्रेम और जीवन दर्शन के लिए यह उपयुक्त छंद है।
भाषा की सहजता
इसमें सरल और स्पष्ट भाषा प्रयोग की जाती है, जिससे यह जनमानस में सरलता से ग्रहण होता है।
(ङ) कवि बिहारी द्वारा रचित निम्नलिखित शृंगारपरक दोहों का भाव अपने शिक्षक की सहायता से जानने का प्रयास करो :-
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत लजियात।
भरे भौन में करत हैं, नैननु ही सब बात॥1॥
उत्तर – इस दोहे में नायिका की चंचल और आकर्षक अदाओं का वर्णन है। बिहारी ने आँखों की भाषा को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से चित्रित किया है। नायिका कभी कुछ कहती है, कभी नखरे करती है, कभी प्रसन्न होती है, तो कभी झुँझलाती है। मिलने पर मुस्कुराती है और लज्जा भी करती है। वह सब बातें केवल अपनी आँखों से ही करती है।
बतरस – लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करें भौंहनु हँसे, दैन कहै नटि जाइ॥2॥
उत्तर – यह दोहा राधा-कृष्ण की प्रेम-छेड़छाड़ और उनकी मधुर शृंगारी लीलाओं को दर्शाता है। राधा कृष्ण की बातें करने के लिए लालायित है। इसलिए उसने कृष्ण की मुरली छिपा दी है। जब कृष्ण मुरली माँगते हैं तो राधा भौंहों से संकेत कर मुस्कुराती है, पर मुरली लौटाती नहीं और शरारत भरे अंदाज़ में मना कर देती है।
औंधाई सीसी सु लखि, बिरह बरति बिललात।
बीचहिं सूखि गुलाबु गौ, छींटौ छुयौ न गात॥3॥
उत्तर – इस दोहे में बिहारी ने नायिका की विरह-वेदना और उसकी कोमलता का अत्यंत मार्मिक वर्णन किया है। विरह से पीड़ित नायिका की हालत ऐसी हो गई है जैसे कोई गुलाब का फूल बीच से सूख गया हो। उसका सिर नीचे की ओर झुका है, वह पीड़ा से कराह रही है, और शरीर इतना कमजोर हो गया है कि छींटा भी छू जाए तो उसे दर्द होता है।