सभी पाठक सुधीजनों को मेरा दंडवत प्रणाम। आज मैं आपके सम्मुख शिक्षा -सभ्यताओं के निर्माता विषय पर अपने विचार रखने जा रहा हूँ। यह तो सत्य वचन है कि शिक्षा मनुष्य को सभ्य बनाती है। आज बच्चे जिस विद्यालय में एकत्रित होते हैं वह शिक्षा केंद्र हमें सभ्य बनाने का ही काम कर रही है। द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने कहा था कि लकड़हारे उस समय तक जंगल के पेड़ों को काटते जाएँगे जब तक पृथ्वी पर जंगल समाप्त नहीं हो जाते परंतु अगर उन लकड़हारों को इस बात की शिक्षा दे दी जाए कि जंगल के रहने से ही हमारा अस्तित्व है तो वे शिक्षित होने के बाद पेड़ों को काटने के बजाय वृक्षारोपण करेंगे। शिक्षा मनुष्य के मस्तिष्क को विधिवत् सोचने की शक्ति प्रदान करती है। यहाँ एक सवाल यह भी है कि आज शिक्षित वर्ग ही सबसे ज्यादा अपराध करते नज़र आते हैं तो ऐसे में शिक्षा का स्वरूप किस बदलाव की माँग कर रहा है? यह बहुत बड़ा सवाल है। अब मैं आपको द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर का एक उदाहरण देना चाहूँगा। जर्मनी में नाजियों ने यहूदियों को मारने के लिए कंसंट्रेशन कैंप और गैस चैंबर बनाए थे। ये इतने उम्दा तरीके से बनाए गए थे कि इसमें कुछ ही क्षणों में हजारों यहूदियों को मौत की नींद सुला दी जाती थी लेकिन विषयगत शिक्षा जैसे सिविल इंजीनियरिंग, केमिकल इंजीनियरिंग प्रयोग गलत कामों में कर रहे थे क्या यही है वास्तविक शिक्षा, कदापि
आदि विषयों को पढ़ने वाले अपनी शिक्षा का नहीं। शिक्षा में साहित्य का समावेश करने की ज़रूरत है, नैतिक मूल्यों और वैश्विक बंधुता के भावों को आत्मसात् करने की अत्यंत आवश्यकता है तभी जाकर शिक्षा सुगठित सभयता का निर्माण कर सकेगी।
कबीर ने कहा भी है।
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ॥”
इसी के साथ आप सबे चरणों में मेरा नमन समर्पित करते हुए मैं अपनी लेखनी को विराम देता हूँ। धन्यवाद!
अविनाश रंजन गुप्ता