लेखक परिचय कुमार गंधर्व
(सन् 1924 – 1992)
जन्म सुलेभावि, ज़िला बेलगाँव (कर्नाटक)में। मूल नाम शिवपुत्र सढ़िदारमैया कामकली। मात्र 10 वर्ष की उम्र में गायकी की पहली मंचीय प्रस्तुति। उनके संगीत की मुख्य विशेषता मालवा लोक धुनों और हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का सुंदर सामंजस्य है जिसका अद्भुत नमूना कबीर के पदों का उनके द्वारा गायन है। लोक में रचे-बसे लुप्तप्राय पदों का संग्रह कर और उन्हें स्वरों में बाँधकर कुमार गंधर्व ने इन्हें अंतर्राष्ट्रीय पहचान दी। इन्हें कालिदास सम्मान और पद्मविभूषण सहित बहुत से सम्मान से अलंकृत किया गया है।
भारतीय गायिकाओं में बेजोड़ – लता मंगेशकर
बरसों पहले की बात है। मैं बीमार था। उस बीमारी में एक दिन मैंने सहज ही रेडियो लगाया और अचानक एक अद्वितीय स्वर मेरे कानों में पड़ा। स्वर सुनते ही मैंने अनुभव किया कि यह स्वर कुछ विशेष है, रोज़ का नहीं। यह स्वर सीधे मेरे कलेजे से जा भिड़ा। मैं तो हैरान हो गया। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि यह स्वर किसका है। मैं तन्मयता से सुनता ही रहा। गाना समाप्त होते ही गायिका का नाम घोषित किया गया – लता मंगेशकर। नाम सुनते ही मैं चकित हो गया। मन-ही-मन एक संगति पाने का भी अनुभव हुआ। सुप्रसिद्ध गायक दीनानाथ मंगेशकर की अजब गायकी एक दूसरा स्वरूप लिए उन्हीं की बेटी की कोमल आवाज़ में सुनने का अनुभव हुआ।
मुझे लगता है ‘बरसात’ के भी पहले के किसी चित्रपट का वह कोई गाना था। तब से लता निरंतर गाती चली आ रही है और मैं भी उसका गाना सुनता आ रहा हूँ। लता के पहले प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ का चित्रपट संगीत में अपना ज़माना था। परंतु उसी क्षेत्र में बाद में आई हुई लता उससे कहीं आगे निकल गई। कला के क्षेत्र में ऐसे चमत्कार कभी-कभी दीख पड़ते हैं। जैसे प्रसिद्ध सितारिये विलायत खाँ अपने सितारवादक पिता की तुलना में बहुत ही आगे चले गए।
मेरा स्पष्ट मत है कि भारतीय गायिकाओं में लता के जोड़ की गायिका हुई ही नहीं। लता के कारण चित्रपट संगीत को विलक्षण लोकप्रियता प्राप्त हुई है, यही नहीं लोगों का शास्त्रीय संगीत की ओर देखने का दृष्टिकोण भी एकदम बदला है। छोटी बात कहूँगा। पहले भी घर-घर छोटे बच्चे गाया करते थे पर उस गाने में और आजकल घरों में सुनाई देने वाले बच्चों के गाने में बड़ा अंतर हो गया है। आजकल के नन्हे- मुन्ने भी स्वर में गुनगुनाते हैं। क्या लता इस जादू का कारण नहीं है? कोकिला का स्वर निरंतर कानों में पड़ने लगे तो कोई भी सुनने वाला उसका अनुकरण करने का प्रयत्न करेगा। ये स्वाभाविक ही है। चित्रपट संगीत के कारण सुंदर स्वर मालिकाएँ लोगों के कानों पर पड़ रही हैं। संगीत के विविध प्रकारों से उनका परिचय हो रहा है। उनका स्वर-ज्ञान बढ़ रहा है। सुरीलापन क्या है, इसकी समझ भी उन्हें होती जा रही है। तरह-तरह की लय के भी प्रकार उन्हें सुनाई पड़ने लगे हैं और आकारयुक्त लय के साथ उनकी जान-पहचान होती जा रही है। साधारण प्रकार के लोगों को भी उसकी सूक्ष्मता समझ में आने लगी है। इन सबका श्रेय लता को ही है। इस प्रकार उसने नयी पीढ़ी के संगीत को संस्कारित किया है और सामान्य मनुष्य में संगीत विषयक अभिरुचि पैदा करने में बड़ा हाथ बँटाया है। संगीत की लोकप्रियता, उसका प्रसार और अभिरुचि के विकास का श्रेय लता को ही देना पडे़गा।
सामान्य श्रोता को अगर आज लता की ध्वनिमुद्रिका और शास्त्रीय गायकी की ध्वनिमुद्रिका सुनाई जाए तो वह लता की ध्वनिमुद्रिका ही पसंद करेगा। गाना कौन से राग में गाया गया और ताल कौन-सा था, यह शास्त्रीय ब्योरा इस आदमी को सहसा मालूम नहीं रहता। उसे इससे कोई मतलब नहीं कि राग मालकोस3 था और ताल त्रिताल। उसे तो चाहिए वह मिठास, जो उसे मस्त कर दे, जिसका वह अनुभव कर सके और यह स्वाभाविक ही है। क्योंकि जिस प्रकार मनुष्यता हो तो वह मनुष्य है, वैसे ही ‘गानपन’ हो तो वह संगीत है। और लता का कोई भी गाना लीजिए तो उसमें शत-प्रतिशत यह ‘गानपन’ मौजूद मिलेगा।
लता की लोकप्रियता का मुख्य मर्म यह ‘गानपन’ ही है। लता के गाने की एक और विशेषता है, उसके स्वरों की निर्मलता। उसके पहले की पार्श्व गायिका नूरजहाँ भी एक अच्छी गायिका थी, इसमें संदेह नहीं तथापि उसके गाने में एक मादक उत्तान दीखता था। लता के स्वरों में कोमलता और मुग्धता है। ऐसा दीखता है कि लता का जीवन की ओर देखने का जो दृष्टिकोण है वही उसके गायन की निर्मलता में झलक रहा है। हाँ, संगीत दिग्दर्शकों ने उसके स्वर की इस निर्मलता का जितना उपयोग कर लेना चाहिए था, उतना नहीं किया। मैं स्वयं संगीत दिग्दर्शक होता तो लता को बहुत जटिल काम देता, ऐसा कहे बिना रहा नहीं जाता।
लता के गाने की एक और विशेषता है, उसका नादमय उच्चार। उसके गीत के किन्हीं दो शब्दों का अंतर स्वरों के आलाप द्वारा बड़ी सुंदर रीति से भरा रहता है और ऐसा प्रतीत होता है कि वे दोनों शब्द विलीन होते-होते एक दूसरे में मिल जाते हैं। यह बात पैदा करना बड़ा कठिन है, परंतु लता के साथ यह बात अत्यंत सहज और स्वाभाविक हो बैठी है।
ऐसा माना जाता है कि लता के गाने में करुण रस विशेष प्रभावशाली रीति से व्यक्त होता है, पर मुझे खुद यह बात नहीं पटती। मेरा अपना मत है कि लता ने करुण रस के साथ उतना न्याय नहीं किया है। बजाए इसके, मुग्ध शृंगार की अभिव्यक्ति करने वाले मध्य या द्रुतलय1 के गाने लता ने बड़ी उत्कटता से गाए हैं। मेरी दृष्टि से उसके गायन में एक और कमी है तथापि यह कहना कठिन होगा कि इसमें लता का दोष कितना है और संगीत दिग्दर्शकों का दोष कितना। लता का गाना सामान्यतः ऊँची पट्टी में रहता है। गाने में संगीत दिग्दर्शक उसे अधिकाधिक ऊँची पट्टी में गवाते हैं और उसे अकारण ही चिलवाते हैं।
एक प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि शास्त्रीय संगीत में लता का स्थान कौन-सा है। मेरे मत से यह प्रश्न खुद ही प्रयोजनहीन है। उसका कारण यह है कि शास्त्रीय संगीत और चित्रपट संगीत में तुलना हो ही नहीं सकती। जहाँ गंभीरता शास्त्रीय संगीत का स्थायीभाव है वहीं जलदलय और चपलता चित्रपट संगीत का मुख्य गुणधर्म है। चित्रपट संगीत का ताल प्राथमिक अवस्था का ताल होता है, जबकि शास्त्रीय संगीत में ताल अपने परिष्कृत रूप में पाया जाता है। चित्रपट संगीत में आधे तालों का उपयोग किया जाता है। उसकी लयकारी बिलकुल अलग होती है, आसान होती है। यहाँ गीत और आघात को ज़्यादा महत्व दिया जाता है। सुलभता और लोच को अग्र स्थान दिया जाता है तथापि चित्रपट संगीत गाने वाले को शास्त्रीय संगीत की उत्तम जानकारी होना आवश्यक है और वह लता के पास निःसंशय है। तीन-साढे़ तीन मिनट के गाए हुए चित्रपट के किसी गाने का और एकाध खानदानी शास्त्रीय गायक की तीन-साढ़े तीन घंटे की महफ़िल, इन दोनों का कलात्मक और आनंदात्मक मूल्य एक ही है, ऐसा मैं मानता हूँ। किसी उत्तम लेखक का कोई विस्तृत लेख जीवन के रहस्य का विशद् रूप में वर्णन करता है तो वही रहस्य छोटे से सुभाषित का या नन्ही-सी कहावत में सुंदरता और परिपूर्णता से प्रकट हुआ भी दृष्टिगोचर होता है। उसी प्रकार तीन घंटों की रंगदार महफ़िल का सारा रस लता की तीन मिनट की ध्वनिमुद्रिका में आस्वादित किया जा सकता है। उसका एक-एक गाना एक संपूर्ण कलाकृति होता है। स्वर, लय, शब्दार्थ का वहाँ त्रिवेणी संगम होता है और महफ़िल की बेहोशी उसमें समाई रहती है। वैसे देखा जाए तो शास्त्रीय संगीत क्या और चित्रपट संगीत क्या, अंत में रसिक को आनंद देने की सामर्थ्य किस गाने में कितना है, इस पर उसका महत्व ठहराना उचित है। मैं तो कहूँगा कि शास्त्रीय संगीत भी रंजक न हो, तो बिलकुल ही नीरस ठहरेगा। अनाकर्षक प्रतीत होगा और उसमें कुछ कमी-सी प्रतीत होगी। गाने में जो गानपन प्राप्त होता है, वह केवल शास्त्रीय बैठक के पक्केपन की वजह से ताल सुर के निर्दोष ज्ञान के कारण नहीं। गाने की सारी मिठास, सारी ताकत उसकी रंजकता पर मुख्यतः अवलंबित रहती है और रंजकता का मर्म रसिक वर्ग के समक्ष कैसे प्रस्तुत किया जाए, किस रीति से उसकी बैठक बिठाई जाए और श्रोताओं से कैसे सुसंवाद साधा जाए, इसमें समाविष्ट है। किसी मनुष्य का अस्थिपंजर और एक प्रतिभाशाली कलाकार द्वारा उसी मनुष्य का तैलचित्र1, इन दोनों में जो अंतर होगा वही गायन के शास्त्रीय ज्ञान और उसकी स्वरों द्वारा की गई सुसंगत अभिव्यक्ति में होगा।
संगीत के क्षेत्र में लता का स्थान अव्वल दरजे के खानदानी गायक के समान ही मानना पडे़गा। क्या लता तीन घंटों की महफ़िल जमा सकती है, ऐसा संशय व्यक्त करने वालों से मुझे भी एक प्रश्न पूछना है, क्या कोई पहली श्रेणी का गायक तीन मिनट की अवधि में चित्रपट का कोई गाना उसकी इतनी कुशलता और रसोत्कटता से गा सकेगा? नहीं, यही उस प्रश्न का उत्तर उन्हें देना पडे़गा? खानदानी गवैयों का ऐसा भी दावा है कि चित्रपट संगीत के कारण लोगों की अभिरुचि बिगड़ गई है। चित्रपट संगीत ने लोगों के ‘कान बिगाड़ दिए’ ऐसा आरोप लगाया जाता है। पर मैं समझता हूँ कि चित्रपट संगीत ने लोगों के कान खराब नहीं किए हैं, उलटे सुधार दिए हैं। ये विचार पहले ही व्यक्त किए हैं और उनकी पुनरूक्ति नहीं करूँगा।
सच बात तो यह है कि हमारे शास्त्रीय गायक बड़ी आत्मसंतुष्ट वृत्ति के हैं। संगीत के क्षेत्र में उन्होंने अपनी हुकुमशाही स्थापित कर रखी है। शास्त्र-शुद्धता के कर्मकांड को उन्होंने आवश्यकता से अधिक महत्व दे रखा है। मगर चित्रपट संगीत द्वारा लोगों की अभिजात्य संगीत से जान-पहचान होने लगी है। उनकी चिकित्सक और चौकस वृत्ति अब बढ़तीजा रही है। के वल शास्त्र-शद्धु आरै नीरस गाना उन्हें नहीं चाहिए, उन्हें तो सुरीला और भावपूर्ण गाना चाहिए। और यह क्रांति चित्रपट संगीत ही लाया है। चित्रपट संगीत समाज की संगीत विषयक अभिरुचि में प्रभावशाली मोड़ लाया है। चित्रपट संगीत की लचकदारी उसका एक और सामर्थ्य है, ऐसा मुझे लगता है। उस संगीत की मान्यताएँ, मर्यादाएँ, झंझटें सब कुछ निराली हैं। चित्रपट संगीत का तंत्र ही अलग है। यहाँ नवनिर्मिति की बहुत गुंजाइश है। जैसा शास्त्रीय रागदारी का चित्रपट संगीत दिग्दर्शकों ने उपयोग किया, उसी प्रकार राजस्थानी, पंजाबी, बंगाली, प्रदेश के लोकगीतों के भंडार को भी उन्होंने खूब लूटा है, यह हमारे ध्यान में रहना चाहिए। धूप का कौतुक करने वाले पंजाबी लोकगीत, रूक्ष और निर्जल राजस्थान में पर्जन्य की याद दिलाने वाले गीत पहाड़ों की घाटियों, खोरों में प्रतिध्वनित होने वाले पहाड़ी गीत, ऋतुचक्र समझाने वाले और खेती के विविध कामों का हिसाब लेने वाले कृषिगीत और ब्रजभूमि में समाविष्ट सहज मधुर गीतों का अतिशय मार्मिक व रसानुकूल उपयोग चित्रपट क्षेत्र के प्रभावी संगीत दिग्दर्शकों ने किया है और आगे भी करते रहेंगे। थोडे़ में कहूँ तो संगीत का क्षेत्र ही विस्तीर्ण है। वहाँ अब तक अलक्षित, असंशोधित और अदृष्टिपूर्व ऐसा खूब बड़ा प्रांत है तथापि बड़े जोश से इसकी खोज और उपयोग चित्रपट के लोग करते चले आ रहे हैं। फलस्वरूप चित्रपट संगीत दिनोंदिन अधिकाधिक विकसित होता जा रहा है।
ऐसे इस चित्रपट संगीत क्षेत्र की लता अनभिषिक्त सम्राज्ञी है। और भी कई पार्श्व गायक-गायिकाएँ हैं, पर लता की लोकप्रियता इन सभी से कहीं अधिक है। उसकी लोकप्रियता के शिखर का स्थान अचल है। बीते अनेक वर्षों से वह गाती आ रही है और फिर भी उसकी लोकप्रियता अबाधित है। लगभग आधी शताब्दी तक जन-मन पर सतत प्रभुत्व रखना आसान नहीं है। ज़्यादा क्या कहूँ, एक राग भी हमेशा टिका नहीं रहता। भारत के कोने-कोने में लता का गाना जा पहुँचे, यही नहीं परदेस में भी उसका गाना सुनकर लोग पागल हो उठें, यह क्या चमत्कार नहीं है? और यह चमत्कार हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं।
ऐसा कलाकार शताब्दियों में शायद एक ही पैदा होता है। ऐसा कलाकार आज हम सभी के बीच है, उसे अपनी आँखों के सामने घूमता-फिरता देख पा रहे हैं। कितना बड़ा है हमारा भाग्य!
शब्दार्थ
1. कलेजा – ह्रदय
2. तन्मयता – लीनता, गहराई
3. चित्रपट – सिनेमा
4. सितारिये – सितारवादक
5. विलक्षण – अद्भुत, अनोखा
6. दृष्टिकोण – विचार
7. कोकिला – कोयल
8. श्रेय – Credit
9. विषयक – संबंधी
10. ध्वनिमुद्रिका – आवाज़
11. ब्यौरा – विवरण, Report
12. मालकोस – एक प्रकार का कोमल राग
13. त्रिताल – सोलह मात्राओं का एक ताल
14. पार्श्व गायिका – Playback singer
15. मादक – नशीली
16. उत्तान – तान, Tempo
17. विलीन – गायब
18. दिग्दर्शक – निर्देशक, Director
19. करुण – दुख
20. रीति – प्रकार
21. पटती – जँचती
22. शृंगार – प्रेम
23. द्रुतलय – तेज़ ध्वनि
24. उत्कटता -व्यग्रता
25. परिष्कृत -सँवरा हुआ
26. अग्र – आगे
27. लोच – स्वरों का बारीक प्रयोग
28. चपलता – तेज़ी
29. महफ़िल -सभा
30. विशद् – व्यापक
31. सुभाषित – सूक्ति
32. त्रिवेणी – तीनधाराएँ
33. नीरस – रसहीन
34. रंजकता – रिझाने की शक्ति
35. अवलंबित – टिकी हुई
36. समाविष्ट -बसा हुआ
37. तैल चित्र – Oil paint
38. संशय – शक
39. चौकस – सावधानी
40. मर्यादा – सीमा
41. अभिजात्य -कुलीन वर्ग का
42. वृत्ति – भावना
43. हुकुम शाही -अधिकार शासन
44. तंत्र – तरीका
45. गुंजाइश -स्थान
46. रागदारी – रागों की संरचना
47. कौतुक – क्रीड़ा
48. पर्जन्य – बादल
49. खोर – गली
50. विस्तीर्ण – व्यापक
51. अनाभिषिक्त – जिस का तिलक न किया गया हो
52. अतिशय -अत्यधिक
53. कृषिगत – खेती से संबंधित
54. सतत – लगातार
55. प्रभुत्व – अधिकार
56. शिखर -चोटी
57. अदृष्टिपूर्व – जिसे पहले न देखा गया हो
58. अलक्षित – जिसे पहले कहीं न देखा गया हो
59. अचल – स्थिर
60. चिकित्सक – इलाज करने वाला, Doctor
61. अवदजी- समय
62. दर्जा – श्रेणी
अभ्यास
पाठ के साथ
1. लेखक ने पाठ में गानपन का उल्लेख किया है। पाठ के संदर्भ में स्पष्ट करते हुए बताएँ कि आपके विचार में इसे प्राप्त करने के लिए किस प्रकार के अभ्यास की आवश्यकता है?
उत्तर – लेखक कुमार गंधर्व ने इस पाठ में ‘गानपन’ का विशेष उल्लेख किया है। ‘गानपन’ का अर्थ है – गाने से मिलने वाली मिठास और मस्ती। जिस प्रकार मनुष्य कहलाने के लिए मनुष्यता व मानवता के गुणधर्म का होना आवश्यक है उसी प्रकार संगीत में भी गानपन आवश्यक है। लता मंगेशकर के गायन में यही गानपन है, जो शत-प्रतिशत है और यही उनकी लोकप्रियता का मूल आधार है। गानपन को प्राप्त करने के लिए नादमय उच्चार के अतिरिक्त गाने की तन्मयता से रियाज़ करने की आवश्यकता भी होती है।
2. लेखक ने लता की गायकी की किन विशेषताओं को उजागर किया है? आपको लता की गायकी में कौन-सी विशेषताएँ नज़र आती हैं? उदाहरण सहित बताइए।
उत्तर – लताजी के गायन की निम्नांकित विशेषताओं की ओर लेखक ने पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है –
1. गानपन व सुरीलापन – वह मिठास जो श्रोता को मदमस्त कर देती है।
2. स्वरों की निर्मलता – लता के गायन की एक मुख्य विशेषता उनके गायन की निर्मलता है।
3. नादमय उच्चार – गीत के किन्हीं दो शब्दों का अंतर स्वरों के आलाप द्वारा सुंदर रीति से भर देना, जिससे वे दोनों शब्द विलीन होते-होते एक दूसरे में मिल जाते हैं।
4. उच्चारण की शुद्धता – लता के गाने में उच्चारण की वास्तविक शुद्धता पाई जाती है।
3. लता ने करुण रस के गानों के साथ न्याय नहीं किया है, जबकि शृंगारपरक गाने वे बड़ी उत्कटता से गाती हैं – इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर – कुमार गंधर्व स्वयं एक संगीतज्ञ हैं इसलिए मैं उनके विचारों से सहमत हो सकता हूँ कि लता ने करुण रस के गानों के साथ न्याय नहीं किया है, जबकि शृंगारपरक गाने वे बड़ी उत्कटता से गाती हैं परंतु मैं जब लता जी के द्वारा गया गया गीत ‘ये मेरे वतन के लोगों’ इतने भावपूर्ण और कारुण्य से गाया गया था कि वहाँ बैठे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु की आँखों में भी पानी आ गया था। इसी प्रकार उनके अन्य गीत जैसे ‘रुदाली’ फिल्म में गाया गीत ‘दिल हूँ-हूँ करे’ और ‘ओ बाबुल प्यारे’ भी कुछ इस तरह ही करुणता से गाए गए हैं। अत: अपने स्तर पर मुझे लगता है कि लता जी ने करुण रस के गानों के साथ भी न्याय किया है।
4. संगीत का क्षेत्र ही विस्तीर्ण है। वहाँ अब तक अलक्षित, असंशोधित और अदृष्टिपूर्व ऐसा खूब बड़ा प्रांत है तथापि बड़े जोश से इसकी खोज और उपयोग चित्रपट के लोग करते चले आ रहे हैं – इस कथन को वर्तमान फ़िल्मी संगीत के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – संगीत का क्षेत्र बहुत ही व्यापक और विस्तृत है इसलिए इसमें अपार संभावनाएँ छिपी हुई हैं। इसमें बहुत से राग, धुन, ताल, यंत्र और स्वर अनछुए रह गए हैं, बहुत से नए अनुसंधान होने अभी भी शेष हैं। वर्तमान फ़िल्मी संगीत को देखें तो हमें पता चलता है कि रोज नई धुनें, नए प्रयोग और नए स्वर सुनने को मिल रहें हैं। आज शास्त्रीय संगीत के साथ लोकगीतों, प्रादेशिक गीतों, पाश्चात्य गीतों, कवित्त अर्थात् रैप गाने का भी प्रचलन बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है।
5. चित्रपट संगीत ने लोगों के कान बिगाड़ दिए – अकसर यह आरोप लगाया जाता रहा है। इस संदर्भ में कुमार गंधर्व की राय और अपनी राय लिखें।
उत्तर – कुमार गंधर्व इस आरोप से सहमत नहीं हैं कि चित्रपट संगीत ने लोगों के कान बिगाड़ दिए हैं। उनके अनुसार चित्रपट संगीत से संगीत में सुधार आया है। इसके कारण ही लोगों को इसके सुरीलेपन की समझ हो रही है। आज संगीत में लोगों की रुचि बढ़ रही है। आज सामान्य जन भी इसकी लय की सूक्ष्मता को समझ पा रहें हैं। चित्रपट संगीत संदर्भ में मेरे विचार कुछ अलग है। भले चित्रपट संगीत से संगीत में सुधार आया है परंतु वो बात केवल पुराने संगीत तक ही सिमट गई। पुराना संगीत जहाँ सुरीलापन, अपनापन और जुड़ाव लाता था वहीँ आज का संगीत कानफोडू, शोर से भरा और तनाव पैदा करने वाला बन गया है। गाने के मुखड़े और अंतरा में बेतुकी, अश्लीलता और अजीब सी तुकबंदी होती है। आज चित्रपट संगीत दौड़ती-भागती जिंदगी की तरह ही उबाऊ और नीरस होती जा रही है।
6. शास्त्रीय एवं चित्रपट दोनों तरह के संगीतों के महत्व का आधार क्या होना चाहिए? कुमार गंधर्व की इस संबंध में क्या राय है? स्वयं आप क्या सोचते हैं?
उत्तर – कुमार गंधर्व के अनुसार शास्त्रीय एवं चित्रपट दोनों तरह के संगीतों के महत्त्व का आधार रंजकता होना चाहिए। इस बात का महत्त्व होना चाहिए कि रसिक को आनंद देने का सामर्थ्य किस गाने में कितना है? यदि शास्त्रीय गाने में रंजकता नहीं है तो वह बिल्कुल नीरस हो जाएगा।
मैं भी लेखक कुमार गंधर्व के मत से पूरी तरह सहमत हूँ कि एक अच्छे संगीत में मधुरता, गानपन और जुड़ाव सर्वोपरि होना चाहिए।
कुछ करने और सोचने के लिए
1. पाठ में किए गए अंतरों के अलावा संगीत शिक्षक से चित्रपट संगीत एवं शास्त्रीय संगीत का अंतर पता करें। इन अंतरों को सूचीबद्ध करें।
उत्तर – छात्र स्वयं करें।
2. कुमार गंधर्व ने लिखा है – चित्रपट संगीत गाने वाले को शास्त्रीय संगीत की उत्तम जानकारी होना आवश्यक है? क्या शास्त्रीय गायकों को भी चित्रपट संगीत से कुछ सीखना चाहिए? कक्षा में विचार—विमर्श करें।
उत्तर – कुमार गंधर्व ने बिलकुल सही लिखा है कि शास्त्रीय गायकों को भी चित्रपट संगीत से कुछ सीखना चाहिए क्योंकि आज के दौर में चित्रपट संगीत को बहुत ही पसंद किया जाता है और सराहा जाता है। इसलिए शास्त्रीय गायकों को भी चित्रपट संगीत की सरलता, सुरीलापन, लोच जैसे गुण सीखने चाहिए।