Ateet Me Dabe Paanv the best solution

Vitaan Class – XII  Chapter -3 Ateet Me Dabe Paanv – Om Thanavi  अतीत में दबे पाँव ओम थानवी (NCERT HINDI Core The Best Solutions)

जन्म सन् 1957 में। शिक्षा-दीक्षा बीकानेर में। राजस्थान विश्वविघालय से व्यावसायिक प्रशासन में एम.कॉम। एडीटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया के महासचिव। 1980 से 1989 तक नौ वर्ष ‘राजस्थान पत्रिका’ में रहे। ‘इतवारी पत्रिका’ के संपादन ने साप्ताहिक को विशेष प्रतिष्ठा दिलाई। सजग और बौद्धिक समाज में इतवारी पत्रिका ने अपने दौर में विशिष्ट स्थान बनाया। अपने सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों के लिए जाने जाते हैं। अभिनेता और निर्देशक के रूप में स्वयं रंगमंच पर सक्रिय रहे हैं। साहित्य, कला, सिनेमा, वास्तुकला, पुरातत्त्व और पर्यावरण में गहन दिलचस्पी रखते हैं। अस्सी के दशक में सेंटर फ़ॉर साइंस एनवायरमेंट (सीएसई) की फ़ेलोशिप पर राजस्थान के पारंपरिक जल-स्रोतों पर खोजबीन कर विस्तार से लिखा। पत्रकारिता के लिए अन्य पुरस्कारों के साथ गणेशशंकर विद्यार्थी पुरस्कार प्रदत्त। 1999 से संपादक के नाते दैनिक जनसत्ता दिल्ली और कलकत्ता के संस्करणों का दायित्व सँभाला। पिछले 17 वर्षों से इंडियन एक्सप्रेस समूह के हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ में संपादक के रूप में कार्यरत।

            अभी भी मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा प्राचीन भारत के ही नहीं, दुनिया के दो सबसे पुराने नियोजित शहर माने जाते हैं। ये सिंधु घाटी सभ्यता के परवर्ती यानी परिपक्व दौर के शहर हैं। खुदाई में और शहर भी मिले हैं। लेकिन मुअनजो-दड़ो ताम्र काल के शहरों में सबसे बड़ा है। वह सबसे उत्कृष्ट भी है। व्यापक खुदाई यहीं पर संभव हुई। बड़ी तादाद में इमारतें, सड़कें, धातु-पत्थर की मूर्तियाँ, चाक पर बने चित्रित भांडे, मुहरें, साज़ो-सामान और खिलौने आदि मिले। सभ्यता का अध्ययन संभव हुआ। उधर सैकड़ों मील दूर हड़प्पा के ज़्यादातर साक्ष्य रेललाइन बिछने के दौरान ‘विकास की भेंट चढ़ गए।’      मुअनजो-दड़ो के बारे में धारणा है कि अपने दौर में वह घाटी की सभ्यता का केंद्र रहा होगा। यानी एक तरह की राजधानी। माना जाता है यह शहर दो सौ हैक्टर क्षेत्र में फैला था। आबादी कोई पचासी हज़ार थी। ज़ाहिर है, पाँच हज़ार साल पहले यह आज के ‘महानगर’ की परिभाषा को भी लाँघता होगा। दिलचस्प बात यह है कि सिंधु घाटी मैदान की संस्कृति थी, पर पूरा मुअनजो-दड़ो छोटे-मोटे टीलों पर आबाद था। ये टीले प्राकृतिक नहीं थे। कच्ची और पक्की दोनों तरह की ईंटों से धरती की सतह को ऊँचा उठाया गया था, ताकि सिंधु का पानी बाहर पसर आए तो उससे बचा जा सके।          

          मुअनजो-दड़ो की खूबी यह है कि इस आदिम शहर की सड़कों और गलियों में आप आज भी घूम-फिर सकते हैं। यहाँ की सभ्यता और संस्कृति का सामान भले अजायबघरों की शोभा बढ़ा रहा हो, शहर जहाँ था अब भी वहीं है। आप इसकी किसी भी दीवार पर पीठ टिका कर सुस्ता सकते हैं। वह एक खंडहर क्यों न हो, किसी घर की देहरी पर पाँव रखकर आप सहसा सहम सकते हैं, रसोई की खिड़की पर खड़े होकर उसकी गंध महसूस कर सकते हैं। या शहर के किसी मुअनजो-दड़ो की एक गली सुनसान मार्ग पर कान देकर उस बैलगाड़ी की रुन-झुन सुन सकते हैं जिसे आपने पुरातत्त्व की तसवीरों में मिट्टी के रंग में देखा है। सच है कि यहाँ किसी आँगन की टूटी-फूटी सीढ़ियाँ अब आपको कहीं नहीं ले जातीं वे आकाश की तरफ़ अधूरी रह जाती हैं। लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की छत पर हैं वहाँ से आप इतिहास को नहीं, उसके पार झाँक रहे हैं।

          सबसे ऊँचे चबूतरे पर बड़ा बौद्ध स्तूप है। मगर यह मुअनजो-दड़ो की सभ्यता के बिखरने के बाद एक जीर्ण-शीर्ण टीले पर बना। कोई पचीस फुट ऊँचे चबूतरे पर छब्बीस सदी पहले बनी ईंटों के दम पर स्तूप को आकार दिया गया। चबूतरे पर भिक्षुओं के कमरे भी हैं। 1922 में जब राखालदास बनर्जी यहाँ आए, तब वे इसी स्तूप की खोजबीन करना चाहते थे। इसके गिर्द खुदाई शुरू करने के बाद उन्हें इलहाम3 हुआ कि यहाँ ईसा पूर्व के निशान हैं। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के महानिदेशक जॉन मार्शल के निर्देश पर खुदाई का व्यापक अभियान शुरू हुआ। धीमे-धीमे यह खोज विशेषज्ञों को सिंधु घाटी सभ्यता की देहरी पर ले आई। इस खोज ने भारत को मिस्र और मेसोपोटामिया (इराक) की प्राचीन सभ्यताओं के समकक्ष ला खड़ा किया। दुनिया की प्राचीन सभ्यता होने के भारत के दावे को पुरातत्त्व का वैज्ञानिक आधार मिल गया।     पर्यटक बँगले से एक सर्पिल पगडंडी पार कर हम सबसे पहले इसी स्तूप पर पहुँचे। पहली ही झलक ने हमें अपलक कर दिया। इसे नागर भारत का सबसे पुराना लैंडस्केप कहा गया है। यह शायद सबसे रोमांचक भी है। न आकाश बदला है, न धरती। पर कितनी सभ्यताएँ, इतिहास और कहानियाँ बदल गईं। इस ठहरे हुए दृश्य में हज़ारों साल से लेकर पलभर पहले तक की धड़कन बसी हुई है। इसे देखकर सुना जा सकता है। भले ही किसी जगह के बारे में हमने कितना पढ़-सुन रखा हो, तसवीरें या वृत्तचित्र देखे हों, देखना अपनी आँख से देखना है। बाकी सब आँख का झपकना है। जैसे यात्रा अपने पाँव चलना है, बाकी सब तो कदम-ताल है।

          मौसम जाड़े का था पर दुपहर की धूप बहुत कड़ी थी। सारे आलम को जैसे एक फीके रंग में रंगने की कोशिश करती हुई । यह इलाका राजस्थान से बहुत मिलता-जुलता है। रेत के टीले नहीं हैं। खेतों का हरापन यहाँ है। मगर बाकी वही खुला आकाश, सूना परिवेश; धूल, बबूल और ज़्यादा ठंड, ज़्यादा गरमी। मगर यहाँ की धूप का मिजाज़ जुदा है। राजस्थान की धूप पारदर्शी है। सिंध की धूप चौंधियाती है। तसवीर उतारते वक्त आप कैमरे में ज़रूरी पुर्ज़े न घुमाएँ तो ऐसा जान पड़ेगा जैसे दृश्यों के रंग उड़े हुए हों।

          पर इससे एक फ़ायदा हुआ। हमें हर दृश्य पर नज़रें दुबारा फिरानी पड़ती । इस तरह बार-बार निहारें तो दृश्य ज़ेहन में ऐसे ठहरते हैं मानो तसवीर देखकर उनकी याद ताज़ा करने की कभी ज़रूरत न पड़े।

          स्तूप वाला चबूतरा मुअनजो-दड़ो के सबसे खास हिस्से के एक सिरे पर स्थित है। इस हिस्से को पुरातत्त्व के विद्वान ‘गढ़’ कहते हैं। चारदीवारी के भीतर ऐतिहासिक शहरों के सत्ता-केंद्र अवस्थित होते थे, चाहे वह राजसत्ता हो या धर्मसत्ता। बाकी शहर गढ़ से कुछ दूर बसे होते थे। क्या यह रास्ता भी दुनिया को मुअनजो-दड़ो ने दिखाया?

          मुअनजो-दड़ो में बौद्ध स्तूप सभी अहम और अब दुनिया-भर में प्रसिद्ध इमारतों के खंडहर चबूतरे के पीछे यानी पश्चिम में हैं। इनमें ‘प्रशासनिक’ इमारतें, सभा भवन, ज्ञानशाला और कोठार हैं। वह अनुष्ठानिक महाकुंड  भी जो सिंधु घाटी सभ्यता के अद्वितीय वास्तुकौशल को स्थापित करने के लिए अकेला ही काफ़ी माना जाता है। असल में यहाँ यही एक निर्माण है जो अपने मूल स्वरूप के बहुत नज़दीक बचा रह सका है। बाकी इमारतें इतनी उजड़ी हुई हैं कि कल्पना और बरामद चीज़ों के जोड़ से उनके उपयोग का अंदाज़ा भर लगाया जा सकता है।

          नगर नियोजन की मुअनजो-दड़ो अनूठी मिसाल है। इस कथन का मतलब आप बड़े चबूतरे से नीचे की तरफ़ देखते हुए सहज ही भाँप सकते हैं। इमारतें भले खंडहरों में बदल चुकी हों मगर ट्टशहर’ की सड़कों और गलियों के विस्तार को स्पष्ट करने के लिए ये खंडहर काफ़ी हैं। यहाँ की कमोबेश सारी सड़कें सीधी हैं या फिर आड़ी। आज वास्तुकार इसे ‘ग्रिड प्लान’ कहते हैं। आज की सेक्टर-मार्का कॉलोनियों में हमें आड़ा-सीधा ‘नियोजन’ बहुत मिलता है।

          लेकिन वह रहन-सहन को नीरस बनाता है। शहरों में नियोजन के नाम पर भी हमें अराजकता ज़्यादा हाथ लगती है। ब्रासीलिया या चंडीगढ़ और इस्लामाबाद ‘ग्रिड’ शैली के शहर हैं जो आधुनिक नगर नियोजन के प्रतिमान ठहराए जाते हैं, लेकिन उनकी बसावट शहर के खुद विकसने का कितना अवकाश छोड़ती है इस पर बहुत शंका प्रकट की जाती है।

          मुअनजो-दड़ो की साक्षर सभ्यता एक सुसंस्कृत समाज की स्थापना थी, लेकिन उसमें नगर नियोजन और वास्तुकला की आखिर कितनी भूमिका थी?

          स्तूप वाले चबूतरे के पीछे ‘गढ़’ और ठीक सामने ‘उच्च’ वर्ग की बस्ती है। उसके पीछे पाँच किलोमीटर दूर सिंधु बहती है। पूरब की इस बस्ती से दक्षिण की तरफ़ नज़र दौड़ाते हुए पूरा पीछे घूम जाएँ तो आपको मुअनजो-दड़ो के खंडहर हर जगह दिखाई देंगे। दक्षिण में जो टूटे-फूटे घरों का जमघट है, वह कामगारों की बस्ती है। कहा जा सकता है इतर वर्ग की। संपन्न समाज में वर्ग भी होंगे। लेकिन क्या निम्न वर्ग यहाँ नहीं था? कहते हैं, निम्न वर्ग के घर इतनी मज़बूत सामग्री के नहीं रहे होंगे कि पाँच हज़ार साल टिक सकें। उनकी बस्तियाँ और दूर रही होंगी। यह भी है कि सौ साल में अब तक इस इलाके के एक-तिहाई हिस्से की खुदाई ही हो पाई है। अब वह भी बंद हो चुकी है।

          हम पहले स्तूप के टीले से महाकुंड  के विहार की दिशा में उतरे। दाईं तरफ़ एक लंबी गली दीखती है। इसके आगे महाकुंड  है। पता नहीं सायास है या संयोग कि धरोहर के प्रबंधकों ने उस गली का नाम दैव मार्ग (डिविनिटि स्ट्रीट) रखा है। माना जाता है कि उस सभ्यता में सामूहिक स्नान किसी अनुष्ठान का अंग होता था। कुंड  करीब चालीस पुQट लंबा और पच्चीस फुट चौड़ा है। गहराई सात पुQट। कुंड  में उत्तर और दक्षिण से सीढ़ियाँ उतरती हैं। इसके तीन तरफ़ साधुओं के कक्ष बने हुए हैं। उत्तर में दो पाँत में आठ स्नानघर हैं। इनमें किसी का द्वार दूसरे के सामने नहीं खुलता। सिद्ध वास्तुकला का यह भी एक नमूना है।

          मुअनजो-दड़ो का प्रसिद्ध जल कुंड  इस कुंड  में खास बात पक्की ईंटों का जमाव है। कुंड  का पानी रिस न सके और बाहर का ‘अशुद्ध’ पानी कुंड  में न आए, इसके लिए कुंड  के तल में और दीवारों पर ईंटों के बीच चूने और चिरोड़ी के गारे का इस्तेमाल हुआ है। पार्श्व की दीवारों के साथ दूसरी दीवार खड़ी की गई है जिसमें सफेद डामर का प्रयोग है। कुंड  के पानी के बंदोबस्त के लिए एक तरफ़ कुआँ है। दोहरे घेरे वाला यह अकेला कुआँ है। इसे भी कुंड  के पवित्र या अनुष्ठानिक होने का प्रमाण माना गया है। कुंड  से पानी को बाहर बहाने के लिए नालियाँ हैं। इनकी खासियत यह है कि ये भी पक्की  ईंटों से बनी हैं और ईंटों से ढकी भी हैं।

          पक्की और आकार में समरूप धूसर ईंटें तो सिंधु घाटी सभ्यता की विशिष्ट पहचान मानी ही गई हैं, ढकी हुई नालियों का उल्लेख भी पुरातात्त्विक विद्वान और इतिहासकार ज़ोर देकर करते हैं। पानी-निकासी का ऐसा सुव्यवस्थित बंदोबस्त इससे पहले के इतिहास में नहीं मिलता।

          महाकुंड  के बाद हमने ‘गढ़’ की ‘परिक्रमा’ की। कुंड  के दूसरी तरफ़ विशाल कोठार है। कर के रूप में हासिल अनाज शायद यहाँ जमा किया जाता था। इसके निर्माण रूप खासकर चौकियों और हवादारी को देखकर ऐसा कयास लगाया गया है। यहाँ नौ-नौ चौकियों की तीन कतारें हैं। उत्तर में एक गली है जहाँ बैलगाड़ियों का -जिनके प्रयोग के साक्ष्य मिले हैं – ढुलाई के लिए आवागमन होता होगा। ठीक इसी तरह का कोठार हड़प्पा में भी पाया गया है।

          अब यह जगज़ाहिर है कि सिंधु घाटी के दौर में व्यापार ही नहीं, उन्नत खेती भी होती थी। बरसों यह माना जाता रहा कि सिंधु जल निकासी का उन्नत प्रबंध जो सिंधु घाटी की अनूठी विशेषता है घाटी के लोग अन्न उपजाते नहीं थे, उसका आयात करते थे। नयी खोज ने इस खयाल को निर्मूल साबित किया है। बल्कि अब कुछ विद्वान मानते हैं कि वह मूलतः खेतिहर और पशुपालक सभ्यता ही थी। लोहा शुरू में नहीं था पर पत्थर और ताँबे की बहुतायत थी। पत्थर सिंध में ही था, ताँबे की खानें राजस्थान में थीं। इनके उपकरण खेती-बाड़ी में प्रयोग किए जाते थे। जबकि मिस्र और सुमेर में चकमक और लकड़ी के उपकरण इस्तेमाल होते थे। इतिहासकार इरफ़ान हबीब के मुताबिक यहाँ के लोग रबी की फ़सल लेते थे। कपास, गेहूँ, जौ, सरसों और चने की उपज के पुख्ता सबूत खुदाई में मिले हैं। वह सभ्यता का तर-युग था जो धीमे-धीमे सूखे में ढल गया।

          विद्वानों का मानना है कि यहाँ ज्वार, बाजरा और रागी की उपज भी होती थी। लोग खजूर, खरबूज़े और अंगूर उगाते थे। झाड़ियों से बेर जमा करते थे। कपास की खेती भी होती थी। कपास को छोड़कर बाकी सबके बीज मिले हैं और उन्हें परखा गया है। कपास के बीज तो नहीं, पर सूती कपड़ा मिला है। ये दुनिया में सूत के दो सबसे पुराने नमूनों में एक है। दूसरा सूती कपड़ा तीन हज़ार ईसा पूर्व का है जो जॉर्डन में मिला। मुअनजो-दड़ो में सूत की कताई-बुनाई के साथ रंगाई भी होती थी। रंगाई का एक छोटा कारखाना खुदाई में माधोस्वरूप वत्स को मिला था। छालटी (लिनन) और ऊन कहते हैं यहाँ सुमेर से आयात होते थे। शायद सूत उनको निर्यात होता हो। जैसा कि बाद में सिंध से मध्य एशिया और यूरोप को सदियों हुआ। प्रसंगवश, मेसोपोटामिया के शिलालेखों में मुअनजो-दड़ो के लिए ‘मेलुहा’ शब्द का संभावित प्रयोग मिलता है।   महाकुंड  के उत्तर-पूर्व में एक बहुत लंबी-सी इमारत के अवशेष हैं। इसके बीचोंबीच खुला बड़ा दालान है। तीन तरफ़ बरामदे हैं। इनके साथ कभी छोटे-छोटे कमरे रहे होंगे। पुरातत्त्व के जानकार कहते हैं कि धार्मिक अनुष्ठानों में ज्ञानशालाएँ सटी हुई होती थीं, उस नज़रिए से इसे ‘कॉलेज ऑफ प्रीस्ट्स’ माना जा सकता है। दक्षिण में एक और भग्न इमारत है। इसमें बीस खंभों वाला एक बड़ा हॉल है। अनुमान है कि यह राज्य सचिवालय, सभा-भवन या कोई सामुदायिक केंद्र रहा होगा।

          गढ़ की चारदीवारी लाँघ कर हम बस्तियों की तरफ़ बढ़े। ये ‘गढ़’ के मुकाबले छोटे टीलों पर बनी हैं, इसलिए इन्हें ‘नीचा नगर’ कहकर भी पुकारा जाता है। खुदाई की प्रक्रिया में टीलों का आकार घट गया है, कहीं-कहीं वे फिर ज़मीन से जा मिले हैं और बस्ती के कुएँ, लगता है जैसे मीनारों की शक्ल में धरती छोड़कर बाहर निकल आए हैं।

          पूरब की बस्ती ‘रईसों की बस्ती’ है। हालाँकि आज के युग में पूरब की बस्तियाँ गरीबों की बस्तियाँ मानी जाती हैं। मुअनजो-दड़ो इसका उलट था। यानी बड़े घर, चौड़ी सड़कें, ज़्यादा कुएँ। मुअनजो .दड़ो के सभी खंडहरों को खुदाई कराने वाले पुरातत्त्ववेत्ताओं का संक्षिप्त नाम दे दिया गया है। जैसे ‘डीके’ हलका-दीक्षित काशीनाथ की खुदाई। उनके नाम पर यहाँ दो हलके हैं। ‘डीके’ क्षेत्र दोनों बस्तियों में सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। शहर की मुख्य सड़क (फ़र्स्ट स्ट्रीट) यहीं पर है। यह बहुत लंबी सड़क है, मानो कभी पूरे शहर को नापती हो। अब यह आधा मील बची है। इसकी चौड़ाई तैंतीस फुटहै। मुअनजो-दड़ो से तीन तरह के वाहनों के साक्ष्य मिले हैं। इनमें सबसे चौड़ी बैलगाड़ी रही होगी। इस सड़क पर दो बैलगाड़ियाँ एक साथ आसानी से आ-जा सकती हैं। यह सड़क वहाँ पहुँचती है, जहाँ कभी ‘बाज़ार’ था।

          इस सड़क के दोनों ओर घर हैं। लेकिन सड़क की ओर सारे घरों की सिर्फ़ पीठ दिखाई देती है। यानी कोई घर सड़क पर नहीं खुलता; उनके दरवाज़े अंदर गलियों में हैं । दिलचस्प संयोग है कि चंडीगढ़ में ठीक यही शैली पचास साल पहले कार्बूजिए ने इस्तेमाल की। वहाँ भी कोई घर मुख्य सड़क पर नहीं खुलता। आपको किसी के घर जाने के लिए मुख्य सड़क से पहले सेक्टर के भीतर दाखिल होना पड़ता है, फिर घर की गली में, फिर घर में। क्या कार्बूजिए ने यह सीख मुअनजो-दड़ो से ली? कहते हैं, कविता में से कविता निकलती है। कलाओं की तरह वास्तुकला में भी कोई प्रेरणा चेतन-अवचेतन ऐसे ही सफ़र करती होगी!        ढकी हुई नालियाँ मुख्य सड़क के दोनों तरफ़ समांतर दिखाई देती हैं। बस्ती के भीतर भी इनका यही रूप है। हर घर में एक स्नानघर है। घरों के भीतर से पानी या मैल की नालियाँ बाहर हौदी तक आती हैं और फिर नालियों के जाल से जुड़ जाती हैं। कहीं-कहीं वे खुली हैं पर ज़्यादातर बंद हैं। स्वास्थ्य के प्रति मुअनजो-दड़ो के बाशिंदों के सरोकार का यह बेहतर उदाहरण है। बस्ती के भीतर छोटी सड़कें हैं और उनसे छोटी गलियाँ भी। छोटी सड़कें नौ से बारह फुट तक चौड़ी हैं। इमारतों से पहले जो चीज़ दूर से ध्यान खींचती है, वह है कुओं का प्रबंध। ये कुएँ भी पकी हुई एक ही आकार की ईंटों से बने हैं। इतिहासकार कहते हैं सिंधु घाटी सभ्यता संसार में पहली ज्ञात संस्कृति है जो कुएँ खोद कर भू-जल तक पहुँची। उनके मुताबिक केवल मुअनजो-दड़ो में सात सौ के करीब कुएँ थे।

          नदी, कुएँ, कुंड , स्नानागार और बेजोड़ पानी-निकासी। क्या सिंधु घाटी सभ्यता को हम जल-संस्कृति कह सकते हैं?

           बड़ी बस्ती में पुरातत्त्वशास्त्री काशीनाथ दीक्षित के नाम पर एक हलका ‘डीके-जी’ कहलाता है। इसके घरों की दीवारें ऊँची और मोटी हैं। मोटी दीवार का अर्थ यह लगाया जाता है कि उस पर दूसरी मंज़िल भी रही होगी। कुछ दीवारों में छेद हैं जो संकेत देते हैं कि दूसरी मंज़िल उठाने के लिए शायद यह शहतीरों की जगह हो। सभी घर ईंट के हैं। एक ही आकार की ईंटें-1 :  2 :  4 के अनुपात की। सभी भट्टी में पकी हुईं। हड़प्पा से हटकर, जहाँ पक्की और कच्ची ईंटों का मिला-जुला निर्माण उजागर हुआ है। मुअनजो-दड़ो में पत्थर का प्रयोग मामूली हुआ। कहीं-कहीं नालियाँ ही अनगढ़ पत्थरों से ढकी दिखाई दीं।

          इन घरों में दिलचस्प बात यह है कि सामने की दीवार में केवल प्रवेश द्वार बना है, कोई खिड़की नहीं है। खिड़कियाँ शायद ऊपर की दीवार में रहती हों, यानी दूसरी मंज़िल पर। बड़े घरों के भीतर आँगन के चारों तरफ़ बने कमरों में खिड़कियाँ ज़रूर हैं। बड़े आँगन वाले घरों के बारे में समझा जाता है कि वहाँ कुछ उघम होता होगा। कुम्हारी का काम या कोई धातु-कर्म। हालाँकि सभी घर खंडहर हैं और दिखाई देने वाली चीज़ों से हम सिर्फ़ अंदाज़ा लगा सकते हैं।

          घर छोटे भी हैं और बड़े भी। लेकिन सब घर एक कतार में हैं। ज़्यादातर घरों का आकार तकरीबन तीस-गुणा-तीस फुट का होगा। कुछ इससे दुगने और तिगुने आकार के भी हैं। इनकी वास्तु शैली कमोबेश एक-सी प्रतीत होती है। व्यवस्थित और नियोजित शहर में शायद इसका भी कोई कायदा नगरवासियों पर लागू हो। एक घर को ‘मुखिया’ का घर कहा जाता है। इसमें दो आँगन और करीब बीस कमरे हैं।

          डीके-बी, सी हलका आगे पूरब में है। दाढ़ी वाले ‘याजक-नरेश’ की मूर्ति इसी तरफ़ के एक घर से मिली थी। डीके-जी की “मुख्य सड़क” पर दक्षिण की ओर बढ़ें तो डेढ़ फर्लांग की दूरी पर ट्टएचआर’ हलका है। सड़क उसे दो भागों में बाँट देती है। ये हलका हेरल्ड हरग्रीव्ज के नाम पर है जिन्होंने 1924-25 में राखालदास बनर्जी के बाद खुदाई करवाई थी। यहीं पर एक बड़े घर में कुछ कंकाल मिले थे, जिन्हें लेकर कई तरह की कहानियाँ बनती रहीं। प्रसिद्ध ‘नर्तकी’ शिल्प भी यहीं एक छोटे घर की खुदाई में निकला था। इसके बारे में पुरातत्त्वविद मार्टिमर वीलर ने कहा था कि संसार में इसके जोड़ की दूसरी चीज़ शायद ही होगी। यह मूर्ति अब दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में है।

          यहीं पर एक बड़ा घर है जिसे उपासना-केंद्र समझा जाता है। इसमें आमने-सामने की दो चौड़ी सीढ़ियाँ ऊपर की (ध्वस्त) मंज़िल की तरफ़ जाती हैं।

          पश्चिम में -गढ़ी के ठीक पीछे -माधोस्वरूप वत्स के नाम पर वीएस हिस्सा है। यहाँ वह ‘रंगरेज़ का कारखाना’ भी लोग चाव से देखते हैं, जहाँ ज़मीन में ईंटों के गोल गइे उभरे हुए हैं। अनुमान है कि इनमें रंगाई के बड़े बर्तन रखे जाते थे। दो कतारों में सोलह छोटे एक-मंज़िला मकान हैं। एक कतार मुख्य सड़क पर है, दूसरी पीछे की छोटी सड़क की तरफ़। सब में दो-दो कमरे हैं। स्नानघर यहाँ भी सब घरों में हैं। बाहर बस्ती में कुएँ सामूहिक प्रयोग के लिए हैं। ये कर्मचारियों या कामगारों के घर रहे होंगे।

          मुअनजो-दड़ो में कुँओं को छोड़कर लगता है जैसे सब कुछ चौकोर या आयताकार हो। नगर की योजना, बस्तियाँ, घर, कुंड , बड़ी इमारतें, ठप्पेदार मुहरें, चौपड़ का खेल, गोटियाँ, तौलने के बाट आदि सब।

          छोटे घरों में छोटे कमरे समझ में आते हैं। पर बड़े घरों में छोटे कमरे देखकर अचरज होता है। इसका एक अर्थ तो यह लगाया गया है कि शहर की आबादी काफ़ी रही होगी। दूसरी तरफ़ यह विचार सामने आया है कि बड़े घरों में निचली(भूतल)मंज़िल में नौकर-चाकर रहते होंगे। ऐसा अमेरिकी नृतत्त्वशास्त्री ग्रेगरी पोसेल का मानना है। बड़े घरों के आँगन में चौड़ी सीढ़ियाँ हैं। कुछ घरों में ऊपर की मंज़िल के निशान हैं, पर सीढ़ियाँ नहीं हैं। शायद यहाँ लकड़ी की सीढ़ियाँ रही हों, जो कालांतर में नष्ट हो गईं। संभव है ऊपर की मंज़िल में ज़्यादा खिड़कियाँ, झरोखे और साज-सज्जा रही हो। लकड़ी का इस्तेमाल भी बहुत संभव है पूरे घर में होता हो। कुछ घरों में बाहर की तरफ सीढ़ियों के संकेत हैं। यहाँ शायद ऊपर और नीचे अलग-अलग परिवार रहते होंगे। छोटे घरों की बस्ती में छोटी संकरी सीढ़ियाँ हैं। उनके पायदान भी ऊँचे हैं। ऐसा जगह की तंगी की वजह से होता होगा।

          गौर किया कि मुअनजो-दड़ो के किसी घर में खिड़कियों या दरवाज़ों पर छज्जों के चिह्न नहीं हैं। गरम इलाकों के घरों में छाया के लिए यह आम प्रावधान होता है। क्या उस वक्त यहाँ इतनी कड़ी धूप नहीं पड़ती होगी? मुझे मुअनजो-दड़ो की जानी-मानी मुहरों के पशु याद हो आए। शेर, हाथी या गैंडा इस मरु-भूमि में हो नहीं सकते। क्या उस वक्त यहाँ जंगल भी थे? यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि यहाँ अच्छी खेती होती थी। पुरातत्त्वी शीरीन रत्नागर का मानना है कि सिंधु-वासी कुँओं से सिंचाई कर लेते थे। दूसरे, मुअनजो-दड़ो की किसी खुदाई में नहर होने के प्रमाण नहीं मिले हैं। यानी बारिश उस काल में काफ़ी होती होगी। क्या बारिश घटने और कुँओं के अत्यधिक इस्तेमाल से भू-तल जल भी पहुँच से दूर चला गया? क्या पानी के अभाव में यह इलाका उजड़ा और उसके साथ सिंधु घाटी की समृद्ध सभ्यता भी? मुअनजो-दड़ो में उस रोज़ हवा बहुत तेज़ बह रही थी। किसी बस्ती के टूटे-फूटे घर में दरवाज़े या खिड़की के सामने से हम गुज़रते तो सांय-सांय की ध्वनि में हवा की लय साफ़ पकड़ में आती थी। वैसे ही जैसे सड़क पर किसी वाहन से गुज़रते हुए किनारे की पटरी के अंतरालों में रह-रहकर हवा के लयबद्ध थपेड़े सुनाई पड़ते हैं। सूने घरों में हवा की लय और ज़्यादा गूँजती है। इतनी कि कोनों का अँधियारा भी सुनाई दे। यहाँ एक घर से दूसरे घर में जाने के लिए आपको किसी घर से वापस बाहर नहीं आना पड़ता। आखिर सब खंडहर हैं। सब कुछ खुला है। अब कोई घर जुदा नहीं है। एक घर दूसरे में खुलता है, दूसरा तीसरे में। जैसे पूरी बस्ती एक बड़ा घर हो। लेकिन घर एक नक्शा ही नहीं होता। हर घर का एक संस्कारमय आकार होता है। भले ही वह पाँच हज़ार साल पुराना घर क्यों न हो। हममें कमोबेश हर कोई पाँव आहिस्ता उठाते हुए एक घर से दूसरे घर में बेहद धीमी गति से दाखिल होता था। मानो मन में अतीत को निहारने की जिज्ञासा ही न हो, किसी अजनबी घर में अनधिकार चहल-कदमी का अपराध-बोध भी हो। जैसे किसी पराए घर में पिछवाड़े से चोरी-छुपे घुस आए सब जानते हैं यहाँ अब कोई बसने नहीं आएगा। लेकिन यह मुअनजो-दड़ो के पुरातात्त्विक अभियान की ही खूबी थी कि मिटृी में इंच-दर-इंच कंघी कर इस कदर शहर, उसकी गलियों और घरों को ढूँढ़ा और सहेजा गया है कि यह अहसास हर वक्त आपके साथ रहता है, कल कोई यहाँ बसता था। ज़रूर यह आपकी सभ्यता परंपरा है। मगर घर आपका नहीं है।

          अनचाहे मुझे मुअनजो-दड़ो की गलियों या घरों में राजस्थान का खयाल न आए, ऐसा नहीं हो सका। महज़ इसलिए नहीं कि (पश्चिमी) राजस्थान और सिंध-गुजरात की दृश्यावली एक-सी है। कई चीज़ें हैं जो मुझे यहाँ से वहाँ जोड़ जाती हैं। जैसे हज़ारों साल पुराने यहाँ के खेत। बाजरे और ज्वार की खेती। मुअनजो-दड़ो के घरों में टहलते हुए मुझे कुलधरा की याद आई। यह जैसलमेर के मुहाने पर पीले पत्थर के घरों वाला एक खूबसूरत गाँव है। उस खूबसूरती में हरदम एक गमी व्याप्त है। गाँव में घर हैं, पर लोग नहीं हैं। कोई डेढ़ सौ साल पहले राजा से तकरार पर स्वाभिमानी गाँव का हर बाशिंदा रातोंरात अपना घर छोड़ चला गया। दरवाज़े-असबाब पीछे लोग उठा ले गए। घर खंडहर हो गए पर ढहे नहीं। घरों की दीवारें, प्रवेश और खिड़कियाँ ऐसी हैं जैसे कल की बात हो। लोग निकल गए, वक्त वहीं रह गया। खंडहरों ने उसे थाम लिया। जैसे सुबह लोग घरों से निकले हों, शायद शाम ढले लौट आने वाले हों।

          राजस्थान ही नहीं, गुजरात, पंजाब और हरियाणा में भी कुएँ, कुंड , गली-कूचे, कच्ची-पक्की ईंटों के कई घर भी आज वैसे मिलते हैं जैसे हज़ारों साल पहले हुए।

          जॉन मार्शल ने मुअनजो-दड़ो पर तीन खंडों का एक विशद प्रबंध छपवाया था। उसमें खुदाई में मिली ठोस पहियों वाली मिट्टी की गाड़ी के चित्र के साथ सिंध में पिछली सदी में बरती जा रही ठीक उसी तरह की बैलगाड़ी का भी एक चित्र प्रकाशित है। तसवीर से उन्होंने एक सतत् परंपरा का इज़हार किया, हालाँकि कमानी या आरे वाले पहिए का आविष्कार बहुत पहले हो चुका था जब मैं छोटा था, हमारे गाँव में भी लकड़ी वाले ठोस पहिए बैलगाड़ी में जुड़ते थे। दुल्हन पहली दपQा इसी बैलगाड़ी में ससुराल जाती थी। बाद में हमारे यहाँ भी बैलगाड़ी में आरे वाले पहिए जुड़ने लगे। अब तो उसमें जीप के उतारू पहिए लगते हैं। हवाई जहाज़ के उतारू पहिए बाज़ार में आने के बाद ऊँटगाड़े (गाड़ी नहीं) का भी आविष्कार हो गया है। रेगिस्तान के जहाज़ से हवा के जहाज़ का यह ऐतिहासिक गठजोड़ है। हालाँकि कहना मुश्किल है कि दुल्हन की सवारी के रूप में बैलगाड़ी या ऊँटगाड़े का अब वहाँ कभी इस्तेमाल होता होगा!

          हमारे मेज़बान ने ध्यान दिलाया कि मुअनजो-दड़ो का अजायबघर देखना अभी बाकी है। खंडहरों से निकल हम उस साबुत इमारत में आ गए। लेकिन प्रदर्शित सामान आपको खंडहरों से निकल आने का एहसास होने नहीं देता। अजायबघर छोटा ही है। जैसे किसी कस्बाई स्कूल की इमारत हो। सामान भी ज़्यादा नहीं है। अहम चीज़ें कराची, लाहौर, दिल्ली और लंदन में हैं। यों अकेले मुअनजो-दड़ो की खुदाई में निकली पंजीकृत चीज़ों की संख्या पचास हज़ार से ज़्यादा है। मगर जो मुट्ठी  भर चीज़ें यहाँ प्रदर्शित हैं, पहुँची हुई सिंधु सभ्यता की झलक दिखाने को काफ़ी हैं। काला पड़ गया गेहूँ, ताँबे और काँसे के बर्तन, मुहरें, वाघ, चाक पर बने विशाल मृद्-भांड, उन पर काले-भूरे चित्र, चौपड़ की गोटियाँ, दीये, माप-तौल पत्थर, ताँबे का आईना, मिट्टी की बैलगाड़ी और दूसरे खिलौने, दो पाटन वाली चक्की, कंघी, मिट्टी के कंगन, रंग-बिरंगे पत्थरों के मनकों वाले हार और पत्थर के औज़ार। अजायबघर में तैनात अली नवाज़ बताता है, कुछ सोने के गहने भी यहाँ हुआ करते थे जो चोरी हो गए।

          एक खास बात यहाँ कोई भी महसूस करेगा। अजायबघर में प्रदर्शित चीज़ों में औज़ार तो हैं, पर हथियार कोई नहीं है। मुअनजो-दड़ो क्या, हड़प्पा से लेकर हरियाणा तक समूची सिंधु सभ्यता में हथियार उस तरह कहीं नहीं मिले हैं जैसे किसी राजतंत्र में होते हैं। इस बात को लेकर विद्वान सिंधु सभ्यता में शासन या सामाजिक प्रबंध के तौर-तरीके को समझने की कोशिश कर रहे हैं। वहाँ अनुशासन ज़रूर था, पर ताकत के बल पर नहीं। वे मानते हैं कोई सैन्य सत्ता शायद यहाँ न रही हो। मगर कोई अनुशासन ज़रूर था जो नगर योजना, वास्तुशिल्प, मुहर-ठप्पों, पानी या साफ़-सफ़ाई जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं आदि में एकरूपता तक को कायम रखे हुए था। दूसरी बात, जो सांस्कृतिक धरातल पर सिंधु घाटी सभ्यता को दूसरी सभ्यताओं से अलग ला खड़ा करती है, वह है प्रभुत्व या दिखावे के तेवर का नदारद होना। दूसरी जगहों पर राजतंत्र या धर्मतंत्र की ताकत का प्रदर्शन करने वाले महल, उपासना-स्थल, मूर्तियाँ और पिरामिड आदि मिलते हैं। हड़प्पा संस्कृति में न भव्य राजप्रसाद मिले हैं, न मंदिर। न राजाओं, महंतों की समाधियाँ। यहाँ के मूर्तिशिल्प छोटे हैं और औज़ार भी। मुअनजो-दड़ो के ‘नरेश’ के सिर पर जो ‘मुकुट’ है, शायद उससे छोटे सिरपेंच की कल्पना भी नहीं की जा सकती। और तो और, उन लोगों की नावें बनावट में मिस्र की नावों जैसी होते हुए भी आकार में छोटी रहीं। आज के मुहावरे में कह सकते हैं वह ‘लो-प्रोफ़ाइल’ सभ्यता थी; लघुता में भी महत्ता अनुभव करने वाली संस्कृति।

          मुअनजो-दड़ो सिंधु सभ्यता का सबसे बड़ा शहर ही नहीं था, उसे साधनों और व्यवस्थाओं को देखते हुए सबसे समृद्ध भी माना गया है। फिर भी इसकी संपन्नता की बात कम हुई है तो शायद इसलिए कि उसमें भव्यता का आडंबर नहीं है। दूसरी वजह यह भी है कि मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा पिछली सदी में ही उद्घाटित हो सके। उनकी अनबूझ लिपि अभी भी सारे रहस्य अपने में छिपाए हुए है।

          सिंधु घाटी के लोगों में कला या सुरुचि का महत्त्व ज़्यादा था। वास्तुकला या नगर-नियोजन ही नहीं, धातु और पत्थर की मूर्तियाँ, मृद्-भांड, उन पर चित्रित मनुष्य, वनस्पति और पशु-पक्षियों की छवियाँ, सुनिर्मित मुहरें, उन पर बारीकी से उत्कीर्ण आकृतियाँ, खिलौने, केश-विन्यास, आभूषण और सबसे ऊपर सुघड़ अक्षरों का लिपिरूप सिंधु सभ्यता को तकनीक-सिद्ध से ज़्यादा कला-सिद्ध ज़ाहिर करता है। एक पुरातत्त्ववेत्ता के मुताबिक सिंधु सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्य-बोध है, “जो राज-पोषित या धर्म-पोषित न होकर समाज-पोषित था।” शायद इसीलिए आकार की भव्यता की जगह उसमें कला की भव्यता दिखाई देती है।

          अजायबघर में रखी चीज़ों में कुछ सुइयाँ भी हैं। खुदाई में ताँबे और काँसे की तो बहुत सारी सुइयाँ मिली थीं। काशीनाथ दीक्षित को सोने की तीन सुइयाँ मिलीं जिनमें एक दो-इंच लंबी थी। समझा गया है कि यह बारीक कशीदेकारी4 में काम आती होगी। याद करें, नर्तकी के अलावा मुअनजो-दड़ो के नाम से प्रसिद्ध जो दाढ़ी वाले ‘नरेश’ की मूर्ति है, उसके बदन पर आकर्षक गुलकारी वाला दुशाला भी है। आज छापे वाला कपड़ा ‘अजरक’ सिंध की खास पहचान बन गया है, पर कपड़ों पर छपाई का आविष्कार बहुत बाद का है। खुदाई में सुइयों के अलावा हाथीदाँत और ताँबे के सुए भी मिले हैं। जानकार मानते हैं कि इनसे शायद दरियाँ बुनी जाती थीं। हालाँकि दरी का कोई नमूना या साक्ष्य हासिल नहीं हुआ है।

          वह शायद कभी हासिल न हो, क्योंकि मुअनजो-दड़ो में अब खुदाई बंद कर दी गई है। सिंधु के पानी के रिसाव से क्षार और दलदल की समस्या पैदा हो गई है। मौजूदा खंडहरों को बचाकर रखना ही अब अपने आप में बड़ी चुनौती है।

अखंड भारत में बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक (1922) में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (ASI) के सदस्य राखालदास बैनर्जी ने 2600 सदी पूर्व निर्मित बौद्ध स्तूप के अध्ययन हेतु पाकिस्तान के सिंध प्रांत में गए और उसके आस-पास की खुदाई करवाने के दौरान उन्हें यह इल्म हुआ कि यहाँ ईसा पूर्व के निशान मौजूद हैं। इस बात की जानकारी उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारी सर जॉन मार्शल को दी। इसके बाद वहाँ व्यापक स्तर पर खुदाई करवाई गई और दुनिया की प्राचीन सभ्यता होने के भारत के दावे को पुरातत्त्व का वैज्ञानिक आधार मिल गया। वर्तमान समय में ये दोनों स्थान पाकिस्तान के अंतर्गत है। पाकिस्तान के सिंध प्रांत में मुअनजो-दड़ो और पंजाब प्रांत में हड़प्पा नाम के दो नगरों को पुरातात्त्विक क्षेत्र के विद्वानों ने खुदाई के बाद सिंधु घाटी सभ्यता का पता लगाया।

यह ओम थानवी के यात्रा-वृत्तांत और रिपोर्ट का मिला-जुला रूप है। उन्होंने इस पाठ में विश्व के सबसे पुराने और नियोजित शहरों-मुअनजो-दड़ो तथा हड़प्पा का वर्णन किया है। पाकिस्तान के सिंध प्रांत में मुअनजो-दड़ो और पंजाब प्रांत में हड़प्पा नाम के दो नगरों को पुरातत्त्वविदों ने खुदाई के दौरान खोज निकाला था और दुनिया की प्राचीन सभ्यता होने के भारत के दावे को पुरातत्त्व का वैज्ञानिक आधार मिल गया। मुअनजो-दड़ो ताम्रकाल का सबसे बड़ा शहर था। मुअनजो-दड़ो का अर्थ है – ‘मुर्दों का टीला’।

खुदाई की व्यवस्था

इस क्षेत्र की खुदाई तथा अध्ययन के लिए पुरातत्त्वशास्त्री, जैसे – काशीनाश दीक्षित, माधोस्वरूप वत्स, राखालदास बैनर्जी, शीरीन रत्नागर, सर जॉन मार्शल, हेरल्ड हरग्रीव्ज, मार्टिमर वीलर, ग्रेगरी पोसेल, इतिहासकार इरफ़ान हबीब आदि महानुभावों ने अपने ज्ञान और अनुभव से इस सभ्यता के विविध पहलुओं को हमारे सामने उपस्थित किया है। यहाँ पर काशीनाश दीक्षित के नाम पर सबसे अधिक हलके हैं, जिसे डीके ‘बी’, ‘सी’ और ‘जी’ कहते हैं। 

मुअनजो-दड़ो का परिचय-

मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा संसार के प्राचीनतम नियोजित शहर माने जाते हैं। इसकी गलियाँ, सड़कें, कमरे, रसोई, खिड़की, चबूतरे, आँगन, सीढ़ियाँ आदि इस नगर के सुंदर नियोजन की कहानी स्वतः ही कह देते हैं। यहाँ की प्रायः सभी सड़कें सीधी हैं या फिर आड़ी। आज के वास्तुकार इसे ‘ग्रिड प्लान’ कहते हैं। यह नगर मैदान में नहीं है, अपितु टीले पर बसा था। ये टीले प्राकृतिक नहीं, अपितु मानव-निर्मित हैं। इनमें कच्ची-पक्की ईंटों से धरती की सतह को ऊँचा उठाया गया है। यह कार्य सिंधु के पानी से बचाव के लिए किया गया था। यहाँ पर ‘उच्च नगर’ और कामगारों के लिए ‘निम्न नगर’ की व्यवस्था थी। यह सिंधु घाटी सभ्यता के परिपक्व दौर का सबसे उत्कृष्ट नगर है। मुअनजो-दड़ो अपने दौर में सभ्यता का केंद्र था। संभवतः यह इस क्षेत्र की राजधानी थी। यह शहर दो सौ हैक्टेयर में फैला था। अनुमानत: इसकी आबादी लगभग 85 हज़ार रही होगी। पाँच हजार वर्ष पूर्व यह एक महानगर था। इस नगर से सैकड़ों मील दूर हड़प्पा नामक नगर था। जिसके साक्ष्य रेल लाइन बिछने के समय नष्ट हो गए थे।

जल संस्कृति –

उच्च नगर से लगभग पाँच-छह किलोमीटर सिंधु नदी बहती है। नगर में चालीस फुट लंबा और पच्चीस फुट चौड़ा एक तालाब है जिसे ‘महाकुंड’ नाम दिया है। महाकुंड की गहराई सात फुट है। कुंड का तल और दीवारें चूने और पक्की ईंटों से बनाए गए हैं। कुंड में बाहर के अशुद्ध पानी को न आने देने का ध्यान रखा गया है। कुंड में पानी की व्यवस्था के लिए एक तरफ कुआँ है। यह कुआँ दोहरे घेरे वाला है। कुंड के पानी को बाहर निकालने के लिए नालियाँ हैं। ये नालियाँ पक्की ईंटों से ही बनी हैं और उनसे ही ढकी हैं। हर घर में जल निकासी की व्यवस्था है, सभी नालियाँ पक्की ईंटों से ढकी हुई हैं। खुदाई के दौरान यहाँ लगभग 700 कुएँ मिले जिससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह पहली ऐसी ज्ञात सभ्यता है जिसने भूगर्भ के जल को प्राप्त किया। यहाँ एक विशाल कोठार भी है जिसमें अनाज रखा जाता था। कपास, गेहूँ, जौ, सरसों, बाजरा आदि के प्रमाण मिले हैं। इससे हमें उन्नत खेती के भी निशान दिखते हैं। इन सभी को आधार बनाते हुए यह कहा जा सकता है कि यह एक जल संस्कृति थी। 

लो प्रोफाइल सभ्यता

सिंधु घाटी के लोगों में कला या सुरुचि का महत्त्व ज्यादा था। वास्तुकला या नगर-नियोजन ही नहीं, धातु और पत्थर की मूर्तियाँ, मृद्-भांड, उन पर चित्रित मनुष्य, वनस्पति और पशु-पक्षियों की छवियाँ, सुनिर्मित मुहरें, उन पर बारीकी से उत्कीर्ण आकृतियाँ, खिलौने, केश-विन्यास, आभूषण और सबसे ऊपर सुघड़ अक्षरों का लिपिरूप सिंधु सभ्यता को तकनीक-सिद्ध से ज्यादा कला-सिद्ध ज़ाहिर करता है। अन्य सभ्यताओं में राजतंत्र और धर्मतंत्र की ताकत को दिखाते हुए भव्य महल, मंदिर और मूर्तियाँ बनाई गईं  किंतु सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में छोटी-छोटी मूर्तियाँ, खिलौने, मृद्-भांड, नावें मिली हैं। ‘याजक नरेश’ के सिर पर रखा मुकुट भी छोटा है। इसमें प्रभुत्व या दिखावे के तेवर कहीं दिखाई नहीं देते। यहाँ आम आदमी के काम आने वाली चीजों को सलीके से बनाया गया है। इन सभी दृष्टियों से यह कह सकते हैं कि सिंधु सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्यबोध है जो कि समाज पोषित है, राजपोषित या धर्मपोषित नहीं है।

अजायबघर से मिली जानकारी 

यहाँ पर एक अजायबघर है। हालाँकि, इसमें सामान ज्यादा नहीं है क्योंकि अहम चीजें कराची, लाहौर, दिल्ली और लंदन में हैं। यों अकेले मुअनजो-दड़ो की खुदाई में निकली पंजीकृत चीजों की संख्या पचास हजार से ज्यादा है। मगर जो मुट्ठी भर चीजें यहाँ प्रदर्शित हैं, पहुँची हुई सिंधु सभ्यता की झलक दिखाने को काफी हैं। काला पड़ गया गेहूँ, ताँबे और काँसे के बर्तन, मुहरें, वाद्य, चाक पर बने विशाल मृद्-भांड, उन पर काले चित्र, चौपड़ की गोटियाँ. दीये, माप-तौल पत्थर, ताँबे का आइना, मिट्टी की बैलगाड़ी और दूसरे खिलौने, दो पाटन वाली चक्की, कंघी, मिट्टी के कंगन, रंग-बिरंगे पत्थरों के मनकों वाले हार और पत्थर के औजार। इसके अतिरिक्त अजायबघर में एक आश्चर्य की बात है कि यहाँ हथियार के नाम पर कुछ भी नहीं है। लगता है, उस समय, इस सभ्यता में अनुशासन शक्ति के बल पर नहीं था।

समापन

मुअनजो-दड़ो की मुहरों पर हमें शेर, हाथी या गैंडा के चित्र देखने को मिलते हैं और इस मरु-भूमि में ये पशु नहीं हो सकते। शायद उस वक्त यहाँ जंगल भी थे। माना जाता है कि मौसम परिवर्तन के कारण और कुओं के पानी का अत्यधिक नीचे चले जाने के कारण जब खेती-बाड़ी के कार्यों में समस्याएँ आने लगीं तो इस सभ्यता का अंत हो गया।  और आज के दौर में भी सिंधु के पानी के रिसाव के कारण मुअनजो-दड़ो की खुदाई का काम बंद कर दिया गया है। पानी के रिसाव से क्षार और दलदल की समस्या पैदा हो गई है। अब तो इन खंडहरों को बचाना भी एक समस्या है।

1. पाकिस्तान के सिंध प्रांत में स्थित पुरातात्त्विक स्थान, जहाँ सिंधु घाटी सभ्यता बसी थी। मुअनजो-दड़ो का अर्थ है मुर्दों का टीला। वर्तमान समय में इसे मोहनजोदड़ो के नाम से जाना जाता है।

2. पाकिस्तान के पंजाब प्रांत का पुरातात्त्विक स्थान, जहाँ सिंधु घाटी सभ्यता का दूसरा प्रमुख नगर बसा था

1. परिपक्व – Matured

2. तादाद – संख्या

3. भांडे – बर्तन

4. आदिम – अत्यंत प्राचीन

5. इलहाम – अनुभूति

6. पर्यटक – सैलानी, Tourist

7. सर्पिल – टेढ़ी-मेढ़ी

8. नागर – नगर की सभ्यता

9. अपलक – बिना पलकें झपकाए

10. लैंडस्केप – भू-दृश्य

11. आलम – संसार

12. जेहन – दिमाग

13. ज्ञानशाला – विद्यालय

14. कोठार – भंडार

15. अनुष्ठानिक – पर्व

16. महाकुंड – यज्ञ का विशाल कुंड

17. वास्तु कौशल – भवन निर्माण की चतुराई

18. मिसाल – उदहारण

19. अनूठी – अनुपम

20. कमोबेश – थोड़ा-बहुत

21. अराजकता – अव्यवस्था

22. कामगार – मज़दूर

23. प्रतिमान – मानक

24. इतर – भिन्न

25. विहार बौद्ध – आश्रम

26. सायास – प्रयत्नसहित

27. दैव – ईश्वरीय

28. पाँत – पंक्ति

29. पार्श्व – अगल-बगल की जगह

30. धूसर – धुलके रंग का

31. निकासी – निकालना

32. परिक्रमा – चक्कर लगाना

33. दौर – काल

34. जग ज़ाहिर- जो सबको पता हो

35. परखना – परीक्षा लेना

36. भग्न – टूटी हुई

37. रईस – धनवान

38. अवशेष – चिह्न

39. हलका – क्षेत्र

40. बाशिंदे – निवासी

41. सरोकार -प्रयोजन

42. मुताबिक – अनुसार

43. तकरीबन – लगभग

44. कायदा – नियम

45. याजक-नरेश – यज्ञकर्ता राजा

46. शिल्प – कलाकारी

47. चौकोर – Square

48. आयताकार – Rectangle

49. प्रावधान – व्यवस्था

50. अंतराल – मध्य

51. अनधिकार – अधिकार रहित

52. चहल-कदमी – टहलना

53. विशद – विशाल

54. इज़हार – प्रकट

55. मेज़बान – Host

56. मृद-भांड – मिट्टी के बर्तन

57. आहा – मुख्य

58. पंजीकृत – Registered

59. आईना – दर्पण

60. भव्य – विशाल

61. समृद्ध – संपन्न

62. आडंबर – दिखावा

63. उद्घाटित – प्रकट

64. उत्कीर्ण – खोदी हुई

65. सुघड़ – सुंदर

66. गुलकारी – कपड़ों पर चित्र अंकित करने की कला

67. क्षार – नमक

1. सिंधु-सभ्यता साधन-संपन्न थी, पर उसमें भव्यता का आडंबर नहीं था। कैसे?

उत्तर – सिंधु सभ्यता साधन-संपन्न थी। यहाँ सुनियोजित नगर थे। पानी की अच्छी व्यवस्था थी। सड़कें छोटी व चौड़ी दोनों प्रकार की थीं। यहाँ के लोग तरह-तरह की खेती करते थे। इनको ताँबे का ज्ञान था। वे अपने सामान का निर्यात भी करते थे। काँसे के बर्तन, चाक पर बने विशाल मृद्-भांड, उन पर बने चित्र, चौपड़ की गोटियाँ, ताँबे का दर्पण, कंघी, मनके वाले हार, सोने के गहने उनकी संपन्नता के सूचक हैं। यातायात के लिए उनके पास बैलगाड़ी थी। उनके अनाज के भंडार भरे रहते थे। उनके मकानों में गृहस्थी की सब सुविधाएँ थीं। वे साफ़-सफाई का बहुत ध्यान रखते थे। उनके समाज में एकरूपता थी। कला में सुरुचि थी। ये मूर्तियाँ बनाने या उत्कीर्ण करने में दक्ष थे। यह कलासिद्ध संस्कृति थी। इनमें पर्याप्त सौंदर्य-बोध था जो राजपोषित या धर्म पोषित न होकर समाजपोषित था। संपन्नता के बाद भी इस सभ्यता में भव्यता (दिखावे) के आडंबर का अभाव था। खुदाई के दौरान यहाँ न भव्य महल मिलें, न मंदिर, और न ही राजाओं या महंतों की समाधियाँ और न ही कोई हथियार। अतः यह कहना ही सर्वोचित है कि सिंधु सभ्यता साधन-संपन्न थी, पर उसमें भव्यता का आडंबर नहीं था। 

2. ‘सिंधु-सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्य-बोध है जो राज-पोषित या धर्म-पोषित न होकर समाज- पोषित था।’ ऐसा क्यों कहा गया?

उत्तर – सिंधु घाटी के लोगों में कला या सुरुचि बहुत अधिक थी जो उस काल के मनुष्यों की दैनिक प्रयोग की वस्तुओं में स्पष्ट दिखाई देती है, जैसे – यहाँ की वास्तुकला तथा नगर नियोजन, धातु व पत्थर की मूर्तियाँ, मिट्टी के बर्तन और उन पर बने चित्र, वनस्पति और पशु-पक्षियों की छवियाँ, मुहरें, उन पर उत्कीर्ण आकृतियाँ, खिलौने, केश विन्यास, आभूषण, सुघड़ लिपि, जल निकासी की उत्तम व्यवस्था इस सभ्यता के सौंदर्यबोध को व्यक्त करती है किंतु वहाँ भव्य राजमहल, मंदिरों और समाधियों के अवशेष तथा हथियारों के चिह्न तक नहीं मिले। भवनों में आकार की विशालता व भव्यता नहीं है। कोई ऐसा चित्र या मूर्ति उपलब्ध नहीं हुई जिसमें प्रभुत्व या दिखावे के तेवर हों। अतः यह कहना ही उचित है कि सिंधु सभ्यता का सौंदर्य राजपोषित या धर्मपोषित नहीं अपितु समाजपोषित था।

3. पुरातत्त्व के किन चिह्नों के आधार पर आप यह कह सकते हैं कि – “सिंधु-सभ्यता ताकत से शासित होने की अपेक्षा समझ से अनुशासित सभ्यता थी।”

उत्तर – मुअनजो-दड़ो के अजायबघर में प्रदर्शित वस्तुओं में कलाकृतियाँ हैं, औजार हैं किंतु कोई हथियार नहीं हैं। हथियार इस बात के द्योतक होते हैं कि शासन में बल का प्रयोग किया जा रहा है। दूसरी तरफ़ हड़प्पा संस्कृति में न भव्य राजप्रसाद मिले हैं, न मंदिर, न राजाओं महंतों की समाधियाँ। यहाँ के मूर्तिशिल्प छोटे हैं और औज़ार भी। मुअनजो-दड़ो नरेश के सिर पर रखा मुकुट भी छोटा है। दूसरी जगहों पर राजतंत्र या धर्मतंत्र की ताकत का प्रदर्शन करने वाले महल, उपासना-स्थल, मूर्तियाँ और पिरामिड आदि मिलते हैं परंतु यहाँ ऐसा कुछ भी नहाईं मिला। यहाँ  यहाँ आम आदमी के काम आने वाली चीजों को सलीके से बनाया गया है। यहाँ नगर योजना, वास्तु कला, मुहरों ठप्पों, जल-व्यवस्था, साफ-सफाई और सामाजिक व्यवस्था आदि में एकरूपता देखने मिलती है। इन आधारों पर विद्वान यह मानते है कि सिंधु-सभ्यता ताकत से शासित होने की अपेक्षा समझ से अनुशासित सभ्यता थी।

4. ‘यह सच है कि यहाँ किसी आँगन की टूटी-फूटी सीढ़ियाँ अब आप को कहीं नहीं ले जातीं वे आकाश की तरफ अधूरी रह जाती हैं लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की छत पर हैं, वहाँ से आप इतिहास को नहीं उस के पार झाँक रहे हैं।’ इस कथन के पीछे लेखक का क्या आशय है?

उत्तर – इस कथन से लेखक का आशय है कि इन टूटे-फूटे घरों की सीढ़ियों पर खड़े होकर हम विश्व की सभ्यता के दर्शन कर सकते हैं क्योंकि सिंधु सभ्यता विश्व की महान सभ्यताओं में से एक है। सिंधु सभ्यता आडंबररहित एवं अनुशासन-प्रिय है। यहाँ के मकानों की सीढ़ियाँ उस कालखंड तथा उससे पूर्व का अहसास कराती हैं, जब यह सभ्यता अपने चरम पर रही होगी। यह सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है। खंडहरों से मिले अवशेषों और इन टूटे-फूटे घरों से मानवता के चिह्न और मानवजाति के क्रमिक विकास को भी देखा जा सकता है। इस सभ्यता से भारत के गौरवशाली अतीत का भी बोध होता है।

5. टूटे-फूटे खंडहर, सभ्यता और संस्कृति के इतिहास के साथ-साथ धड़कती ज़िंदगियों के अनछुए समयों का भी दस्तावेज़ होते हैं – इस कथन का भाव स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – मुअनजो-दड़ो व हड़प्पा के टूटे-फूटे खंडहरों को देखने के बाद प्रत्येक भारतीय के मन में यह भाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व भी हमारे पूर्वज एक विकसित सभ्यता एवं संस्कृति के आधार पर भारत में निवास करते थे। ये खंडहर उस संस्कृति की रहन-सहन व्यवस्था के साथ ही उन पूर्वजों के जीवन के ऐसे क्षेत्रों से भी परिचय कराते हैं जिनसे अभी तक हम अपरिचित थे। मन में यह भाव रहता है कि कल तक लोग यहाँ रहते थे। हम इसी सभ्यता की परंपरा के हैं। कभी ये हमारे ही घर थे किंतु विडंबना है कि आज हम दर्शक मात्र रह गए हैं। इन खंडहरों में खड़े होकर हम कल्पना करते हैं कि हजारों साल पहले यहाँ जीवन की चहल-पहल थी। एक सुरुचिपूर्ण संस्कृति थी। ऐसे लगता है, मानो यहाँ के निवासी अभी कुछ समय पहले ही घर छोड़कर गए हैं। ये खंडहर उस प्राचीन सभ्यता के ठोस प्रमाण हैं।

6. इस पाठ में एक ऐसे स्थान का वर्णन है जिसे बहुत कम लोगों ने देखा होगा, परंतु इससे आपके मन में उस नगर की एक तसवीर बनती है। किसी ऐसे ऐतिहासिक स्थल, जिसको आपने नज़दीक से देखा हो, का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।

उत्तर – मुझे ऐसे में बिहार के दो स्थान राजगीर (राजगृह) और नालंदा की स्मृति अनायास ही हो आती है। उस समय ये दोनों क्षेत्र सर्वश्रेष्ठ शासन और प्रथम विश्वविद्यालय के रूप में परिगणित किए जाते थे। उनके अवशेषों को देखकर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अपने समय में इसका साबूत रूप कितना भव्य और विशाल रहा होगा। विश्वभर से छात्र नालंदा में आकर विद्याध्यन के पुनीत कार्य मेन संलग्न होते होंगे और राजगीर से भारतभूमि का राजनीतिक संचालन होता होगा। ये सब मैं अपनी नज़रों के सामने पाता हूँ जब भी मैं इन दो स्थानों पर उपस्थित रहता हूँ।   

7. नदी, कुएँ, स्नानागार और बेजोड़ निकासी व्यवस्था को देखते हुए लेखक पाठकों से प्रश्न पूछता है कि क्या हम सिंधु घाटी सभ्यता को जल-संस्कृति कह सकते हैं? आपका जवाब लेखक के पक्ष में है या विपक्ष में? तर्क दें।

उत्तर – मोहनजोदड़ो नगर में सड़क के दोनों ओर घर हैं, परंतु किसी भी घर का दरवाज़ा सड़क की ओर नहीं खुलता। प्रत्येक घर में एक स्नानघर है। घर के भीतर से पानी या मैला पानी नालियों के माध्यम से बाहर हौदी में आता है और फिर बड़ी नालियों में चला जाता है। कहीं-कहीं नालियाँ ऊपर से खुली हैं, परंतु अधिकतर नालियाँ ऊपर से बंद हैं। इनकी जलनिकासी व्यवस्था बहुत ही ऊँचे दर्जे की थी। नगर में इमारतों के बाहर कुओं का प्रबंध है। ये कुएँ पक्की ईटों के बने हैं। अकेले मुअनजो-दड़ों नगर में सात सौ कुएँ हैं। यहाँ का महाकुंड लगभग चालीस फुट लंबा और पच्चीस फुट चौड़ा है। इस प्रकार मोहनजोदड़ो में पानी की व्यवस्था सभ्य समाज की पहचान है।

8. सिंधु घाटी सभ्यता का कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिला है। सिर्फ़ अवशेषों के आधार पर ही धारणा बनाई है। इस लेख में मुअनजो-दड़ो के बारे में जो धारणा व्यक्त की गई है। क्या आपके मन में इससे कोई भिन्न धारणा या भाव भी पैदा होता है? इन संभावनाओं पर कक्षा में समूह-चर्चा करें।

उत्तर – सिंधु घाटी सभ्यता के विषय में जानकारी हड़प्पा, मुअनजो-दड़ो व अन्य क्षेत्रों की खुदाई से मिले अवशेषों से मिलती है। यहाँ नगर योजना, मकान, खेती, कला, औज़ार आदि के अवशेष मिले हैं। इनके आधार पर ही एक धारणा बनाई गई कि यह सभ्यता अत्यंत विकसित थी। अनुमान लगाए गए कि यहाँ की नगर-योजना आज की शहरी योजना से विकसित थी, कृषि उन्नत दशा में थी, पशुपालन व व्यापार भी विकसित था। समाज में दो वर्ग ‘उच्च वर्ग’ व ‘निम्न वर्ग’ की परिकल्पना की गई आदि। वस्तुत: ये सब अनुमान हैं। शिलालेखों में अंकित लिपि की पुष्टि अभी तक पूर्ण रूप से नहीं हो पाई है जिस वजह से अभी तक सारी बातें स्पस्थ रूप से सामने नहीं आ पाई हैं।  

1. सिंधु-सभ्यता में नगर-नियोजन से भी कहीं ज्यादा सौंदर्य-बोध के दर्शन होते हैं। ‘अतीत में दबे पाँव’ पाठ दिए तथ्यों के आधार पर जानकारी दीजिए।

उत्तर- कहा जा सकता है कि खुदाई में प्राप्त धातु और पत्थर की मूर्तियों मृद्-भांड, उन पर चित्रित मनुष्य, वनस्पति और पशु-पक्षियों की छवियाँ, सुंदर मुहरें, उन पर बारीकी से उत्कीर्ण आकृतियाँ, खिलौने, केश-विन्यास और आभूषण आदि उस समय के लोगों के सौंदर्य-बोध के परिचायक हैं। इस सबसे कहीं ज्यादा सौंदर्य-बोध कराती हैं वहाँ की सुघड़ लिपि। यदि गहराई से सोचे तो वहाँ की प्रत्येक सुघड़ योजना भी तो सौंदर्य-बोध का ही एक प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। ढकी हुई पक्की नालियाँ बनाने के पीछे गंदगी से बचाव का जो उद्देश्य था वह भी तो मूल रूप से स्वच्छता और सौंदर्य का ही बोध कराता है। आवास की सुंदर व्यवस्था हो या अन्न-भंडारण, सभी के पीछे अप्रत्यक्ष रूप से सौंदर्य-बोध काम कर रहा है। अत: यह स्पष्ट है कि सिंधु सभ्यता में किसी भी अन्य व्यवस्था से ऊपर सौंदर्य-बोध ही था।

2. ‘अतीत में दबे पाँव’ पाठ के आधार पर सिंधु-सभ्यता में प्राप्त वस्तुओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर- अकेले मुअनजो-दड़ो की खुदाई में निकली पंजीकृत चीज़ों की संख्या पचास हजार से ज्यादा है, जिनमें से प्रत्येक सिंधु सभ्यता की उत्कृष्टता की मिसाल है। काले भूरे चित्र, चौपड़ की गोटियाँ, दीये, माप-तौल के पत्थर, ताँबे का आईना, मिट्टी की बैलगाड़ी, अन्य कई प्रकार के खिलौने, दो पाटनवाली चक्की, कंघी, मिट्टी के कंगन, रंग-बिरंगे पत्थर के हार और पत्थर के औज़ार। अजायबघर में तैनात चौकीदार ने बताया कि पहले कुछ सोने के आभूषण भी थे जो चोरी हो गए। प्रत्येक वस्तु देखकर दर्शक हैरत में पड़ जाते हैं। काले पड़ गए गेहूँ, ताँबे और काँसे के बरतन, मुहरें, वाद्य, चाक पर बने विशाल मृद् भांड, अनेक लिपि चिह्न साक्षर सभ्यता के प्रमाण हैं। कुएँ और चाक पर बने बरतनों के अतिरिक्त सब कुछ चौकोर है-बस्तियाँ, कुंड, चौपड़, ठप्पेदार मोहरें, गोटियाँ, तौलने के बाट आदि। सोने की सुइयाँ संभवतः कशीदेकारी के काम आती होगी। सबसे प्रसिद्ध दाढ़ीवाले नरेश की मूर्ति जिसके बदन पर आकर्षक गुलकारीवाला दुशाला भी है, कुछ हाथी दाँत और ताँबे की सुइयाँ भी मिली हैं। खुदाई में प्राप्त नर्तकी की मूर्ति अपने-आप में एक अद्वितीय रचना है। प्रसिद्ध इतिहासकारों ने इसे संसार की तत्कालीन सभ्यताओं की सर्वश्रेष्ठ रचना माना है।

5. महाकुंड को पवित्र रखने के लिए क्या-क्या प्रयत्न किए गए थे?

उत्तर- महाकुंड को पवित्र रखने के लिए उसके तल में पक्की ईंटों का जमाव किया गया था। दीवारों पर भी पक्की ईटों की चिनाई थी। ईटों के बीच में चूने तथा चिरोड़ी के गारे का प्रयोग किया गया था। कुंड की बगल की दीवारों के साथ एक दूसरी दीवार खड़ी की गई थी जिसमें सफेद डामर का प्रयोग किया गया था। कुंड को भरने के लिए जो कुआँ था वह दोहरे घेरे वाला था। कुंड से पानी को बाहर निकालने के लिए भी पक्की नालियाँ थीं। ये नालियाँ ईंटों से ढकी हुई थीं।

8. मुअनजो-दड़ो की सभ्यता सफाई और स्वच्छता के प्रति सावधान थी-सिद्ध कीजिए।

उतर- मुअनजो-दड़ो को सभ्यता सफाई और स्वच्छता का पूरा ध्यान रखती थी। इस सभ्यता में पानी के निकासी की व्यवस्था बहुत उत्तम थी। हर घर में स्नानघर होता था। घरों के भीतर का मैला पानी बाहर स्थित एक हौदी में गिरता था। हौदी का पाने नालियों के जाल से जुड़ जाता था। अधिकतर नालियाँ बंद होती थी। उन पर पत्थर ढके होते थे।

9. मुअनजो-दड़ो में यद्यपि किसी प्रशासन के होने के चिह्न नहीं है, फिर भी उसमें कोई शासन अवश्य था, सिद्ध कीजिए।

उतर- मुअनजो-दड़ो की नगर योजना, एक जैसे मकान और व्यवस्थित जल निकासी प्रथा को देखकर लगता है कि मुअनजो-दड़ो में किसी-न-किसी प्रकार का अनुशासन अवश्य था। सब नगरवासी किसी नियम और शासन को मानते होंगे। सभी घर तीस-गुणा-तीस फुट के या इनसे दोगुने-तिगुने थे। सड़के भी नियोजित थीं। ये बातें स्पष्ट करती हैं कि मुअनजो-दड़ो में कोई-न-कोई प्रभावी शासन-व्यवस्था अवश्य थी।

13. मुअनजो-दड़ो की सभ्यता में हथियारों का न मिलना क्या सिद्ध करता है?

उत्तर- मुअनजो-दड़ो की सभ्यता में हथियार नहीं मिलते। न ही प्रभुत्व, स्वामित्व या शासकीय तेवर दिखाने वाले चित्र मिलते हैं। इससे अनुमान होता है कि सिंधु घाटी की सभ्यता समाज-अनुशासित अत्यंत उच्च सभ्यता थी। यहाँ न धर्म का शासन था. न राजसत्ता का। यहा समाज का संगठन बहत मज़बूत था, जिसके बल पर समाज अनुशासित होता था।

14. मुअनजो-दड़ो की सभ्यता को सबसे अलग सभ्यता कहने का क्या औचित्य है?

उत्तर- मुअनजो-दड़ो की सभ्यता को सबसे अलग सभ्यता इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि इसमें न तो किसी राजसत्ता का प्रमाण मिलता है, न धर्मसत्ता का। न ही अन्य किसी प्रकार की भव्य, दिव्य और प्रभावी संस्था थी जिससे समाज अनुशासित होता था। यह सभ्यता उच्चता और भव्यता की बजाय ‘लो-प्रोफाइल’ सभ्यता थी जिसमें लघुता में ही दिव्यता छिपी हई थी। लोग सभ्य, सुसंस्कृत और कला-प्रेमी थे, किंतु बड़े-बड़े राजाओं, महंतों की मूर्तियाँ, समाधियाँ, महल या गढ़ नहीं मिलते।

1. ‘अतीत में दबे पाँव’ नामक पाठ के लेखक कौन है?

उत्तर – ओम थानवी।

2. ‘अतीत में दबे पाँव’ पाठ क्या हैं?

उत्तर – एक यात्रा वृत्तांत और रिपोर्ताज।

3. “अतीत में दबे पाँव” नामक पाठ में किस सभ्यता का वर्णन हैं?

उत्तर – मुअनजो-दड़ो (सिंधुकालीन)

4. वर्तमान में यह पुरातात्विक स्थल कहाँ है?

उत्तर – पाकिस्तान के सिंध प्रांत में।

5. मोहनजोदड़ो किस नदी के तट पर स्थित हैं?

उत्तर – सिंधु नदी।

6. मुअनजो-दड़ो किस काल के शहरों में सबसे बड़ा शहर है?

उत्तर – ताम्रकालीन।

7. ‘मुअनजोदड़ो’ का अर्थ क्या है?

उत्तर – मृतकों या मुर्दों का टीला।

8. वर्तमान में मुअनजोदड़ो को किस नाम से जाना जाता है?

उत्तर – मोहनजोदड़ो।

9. सिंधु नदी के पानी से बचने के लिए जमीन की सतह को किस तरह ऊपर उठाया गया

था?

उत्तर – कच्ची पक्की ईंटों की चिनाई से (टीलों के रूप में)।

10. मेसोपोटेमिया के अभिलेखों में प्रयोग ‘मेलुहा’ शब्द संभवत किसके लिए प्रयोग होता

होगा?

उत्तर –  मोहनजोदड़ो के लिए।

11. मुअनजोदड़ो की खोज किसने की?

उत्तर – राखलदास बनर्जी।

12. भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक कौन थे?

उत्तर – सर जॉन मार्शल।

13. यह स्थल किस चीज की अनूठी मिसाल है?

उत्तर –  नगर नियोजन की।

14. सिंधु घाटी सभ्यता कितने साल पुरानी है?

उत्तर – 5,000 वर्ष पूर्व।

15. मोहनजोदड़ो का समाज कैसा था?

उत्तर – साक्षर और सुसंस्कृत।

16. सिंधु घाटी की सभ्यता को किस सभ्यता के समकक्ष माना जाता है?

उत्तर – मसोपोटेमिया (इराक) और मिस्र की सभ्यता।

17. सिंधु घाटी की जल संबंधी अनूठी विशेषता क्या है?

उत्तर – जल निकासी का प्रबंध

18. मोहनजोदड़ो नगर कितने हेक्टेयर में फैला हुआ था?

उत्तर – 200 हेक्टेयर में

19. लेखक के अनुसार मोहनजोदड़ो की आबादी लगभग कितनी थी?

उत्तर – 85000

20. मोहनजोदड़ो के अलावा सिंधु घाटी सभ्यता का दूसरा शहर कौन सा है?

उत्तर – हड़प्पा

21. सिंधु घाटी संस्कृति किस प्रकार की मानी जाती है?

उत्तर – मैदानी संस्कृति

22. 100 वर्षों में अब तक मोहनजोदड़ो के कितने भाग की खुदाई की गई है?

उत्तर – एक तिहाई

23. मोहनजोदड़ो के स्तूप के चबूतरे वाले हिस्से को किस नाम से पुकारते हैं?

उत्तर –  गढ़

24. मोहनजोदड़ों की मुख्य सड़क की चौड़ाई कितनी थी?

उत्तर – 33 फीट

25. महाकुंड कितने फुट लंबा है?

उत्तर –  40 फुट

26. महाकुंड की चौड़ाई कितनी है?

उत्तर –  25 फुट

27. महाकुंड की गहराई कितनी है?

उत्तर –  7 फुट

28. महाकुंड के तीन तरफ किसके कमरे बने हुए हैं?

उत्तर –  साधुओं के

29. महाकुंड में पानी के प्रबंध के लिए क्या व्यवस्था है?

उत्तर –  कुआँ।

30. दो पाँत और आठ स्नानागार कहाँ बने थे?

उत्तर –  कुंड के उत्तर – में।

31. कोठार किस काम आते थे?

उत्तर – कर (Tax) से प्राप्त अनाज जमा करने के।

32. दाढ़ी वाली मूर्ति का नाम क्या रखा गया?

उत्तर – याजक नरेश।

33. नर्तकी के अलावा और किसकी मूर्ति मिली थी?

उत्तर – दाढ़ी वाले नरेश की।

34. मोहनजोदड़ो, हड़प्पा से प्राप्त हुई नर्तकी की मूर्ति किस राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी है?

उत्तर – राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली।

35. मोहनजोदड़ो के घरों में टहलते हुए लेखक को किस गाँव की याद आई?

उत्तर – राजस्थान के कुलधरा गाँव।

36. सिंधु घाटी सभ्यता में कपास पैदा होता था। इसका क्या प्रमाण है?

उत्तर – सूती कपड़ा।

37. मोहनजोदड़ो की सभ्यता और संस्कृति अब किस जगह की शोभा बढ़ा रही हैं?

उत्तर – अजायबघरों की।

38. मोहनजोदड़ो के वास्तुकला की तुलना किस नगर के साथ की गई है?

उत्तर – चंडीगढ़।

39. खुदाई से प्राप्त गेहूँ का रंग कैसा था?

उत्तर – काला।

40. अजायबघर में तैनात व्यक्ति का नाम क्या था?

उत्तर – अली नवाज।

41. सिंधु सभ्यता की खूबी क्या है?

उत्तर – सौंदर्यबोध।

42. लेखक ने सिंधु सभ्यता के सौंदर्यबोध को क्या नाम दिया है?

उत्तर – समाज पोषित सौंदर्यबोध।

43. यहाँ की आड़ी और सीधी सड़कों को आज के वास्तुकार क्या कहते हैं?

उत्तर –  ग्रिड प्लान।

44. भग्न इमारत में कितने खंभे हैं?

उत्तर –  20

45. डी. के. हलका किसके नाम पर रखा गया हैं?

उत्तर – काशीनाथ दीक्षित के।

46. सोने की 3 सुईयों किसे मिली थी?

उत्तर –  काशीनाथ दीक्षित

47. यहाँ के सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्से का नाम डी. के. जी किसके नाम पर रखा गया है?

उत्तर –  पुरातत्त्वविद काशीनाथ दीक्षित।

48. सिंधु घाटी सभ्यता में कौन से फल उगाए जाते थे?

उत्तर – खजूर और अंगूर।

49. मोहनजोदड़ो के सबसे ऊँचे चबूतरे में क्या विद्यमान है?

उत्तर –  बौद्ध स्तूप।

50. बौद्ध स्तूप कितने फुट ऊँचे चबूतरे पर निर्मित है?

उत्तर –  25 फुट।

51. स्तूप से महाकुंड की ओर जाने वाले रास्ते का नाम क्या रखा गया है?

उत्तर – डिविनिटी स्ट्रीट यानी देव मार्ग।

52. चबूतरे पर किसके कमरे बने हुए हैं?

उत्तर – बौद्ध भिक्षुओं के।

53. साधु के कमरे कहाँ थे?

उत्तर – कुंड के तीन तरफ।

54. दक्षिण में टूटे-फूटे घरों के जमघट को किसकी बस्ती माना गया है?

उत्तर – कामगारों की।

55. उत्तर – में दो पाँत में कितने स्नानघर हैं?

उत्तर –  8 स्नानघर।

56. अनाज की ढुलाई के लिए किस वाहन का प्रयोग किया जाता होगा?

उत्तर –  बैलगाड़ी।

57. मोहनजोदड़ो में कुओं को छोड़कर अन्य चीजों के आकार कैसे थे?

उत्तर –  चौकोर या आयताकार।

58. सिंधु घाटी के छोटे टीलों पर बनी बस्तियों को क्या कहा गया है?

उत्तर – नीचा नगर।

59. रंगरेज के कारखानों में क्या रखा जाता होगा?

उत्तर – रंगाई के बर्तन।

60. नालियों की क्या विशेषता थी?

उत्तर – नालियों पक्की ईंटों से निर्मित थी और पत्थरों ढकी हुई थी।

1.     ‘अतीत में दबे पाँव’ नामक पाठ के लेखक कौन हैं – ओम थानवी

2.     ‘अतीत में दबे पाँव’ पाठ क्या हैं -एक यात्रा वृत्तांत और रिपोर्ताज 

3.     ‘अतीत में दबे पाँव’ नामक पाठ में किस सभ्यता का वर्णन हैं – मुअनजो -दड़ो (सिंधुकालीन)

4.     वर्तमान में यह पुरातात्विक स्थल कहाँ है – पाकिस्तान के सिंध प्रांत में

5.     मोहनजोदड़ो किस नदी के तट पर स्थित हैं  – सिंधु नदी

6.     मुअनजो -दड़ो किस काल के शहरों में सबसे बड़ा शहर है – ताम्रकालीन

7.     मुअनजो -दड़ो का अर्थ क्या है – मृतकों या मुर्दों का टीला

8.     वर्तमान में मुअनजो -दड़ो को किस नाम से जाना जाता है – मोहनजोदड़ो

9.     मुअनजो -दड़ो के टीले कैसे हैं – मानवनिर्मित

10.    सिंधु नदी के पानी से बचने के लिए जमीन की सतह को किस तरह ऊपर उठाया गया था – कच्ची – पक्की ईंटों की चिनाई से (टीलों के रूप में)

11.    मसोपोटेमिया के अभिलेखों में प्रयोग ‘मेलुहा’ शब्द संभवत किसके लिए प्रयोग होता होगा – मोहनजोदड़ो के लिए

12.    मुअनजो-दड़ो (मोहनजोदड़ो) की खोज किसने की – राखलदास बनर्जी

13.    राखलदास बनर्जी कौन थे – पुरातत्त्ववेत्ता

14.    राखलदास बनर्जी यहाँ पर किस वर्ष आए थे – सन 1922 में

15.    मोहनजोदड़ो की खुदाई किस के निर्देश पर शुरू हुई थी – सर जॉन मार्शल

16.    भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक कौन थे – सर जॉन मार्शल

17.    यह स्थल किस चीज की अनूठी मिसाल है – नगर नियोजन की

18.    सिंधु घाटी सभ्यता कितने साल पुरानी हैं – 5,000 वर्ष पूर्व

19.    मोहनजोदड़ो का नगर कितने हजार साल पहले का है – 5,000 वर्ष पूर्व का

20.    मोहनजोदड़ो अपने काल में किसका केंद्र रहा होगा – सभ्यता का

21.    मोहनजोदड़ो का समाज कैसा था – साक्षर और सुसंस्कृत

22.    सिंधु घाटी की सभ्यता को किस सभ्यता के समकक्ष माना जाता है–मसोपोटेमिया (इराक) और मिस्र की सभ्यता

23.    सिंधु घाटी की जल संबंधी अनूठी विशेषता क्या है – जल निकासी का प्रबंध

24.    मोहनजोदड़ो नगर कितने हेक्टेयर में फैला हुआ था – 200 हेक्टेयर में

25.    लेखक के अनुसार मोहनजोदड़ो की आबादी लगभग कितनी थी – 85000

26.    मोहनजोदड़ो के अलावा सिंधु घाटी सभ्यता का दूसरा शहर कौन सा है – हड़प्पा

27.    सिंधु घाटी संस्कृति किस प्रकार की मानी जाती है – मैदानी संस्कृति

28.    100 वर्षों में अब तक मोहनजोदड़ो के कितने भाग की खुदाई की गई है – एक तिहाई

29.    मोहनजोदड़ो के स्तूप के चबूतरे वाले हिस्से को किस नाम से पुकारते हैं – गढ़

30.    मोहनजोदड़ो की मुख्य सड़क की चौड़ाई कितनी थी – 33 फीट

31.    महाकुंड कितने फुट लंबा है – 40 फुट

32.    महाकुंड की चौडई कितनी है – 25 फुट

33.    महाकुंड की गहराई कितनी है – 7 फुट

34.    महाकुंड के तीन तरफ किसके कमरे बने हुए हैं – साधुओं के

35.    महाकुंड में पानी के प्रबंध के लिए क्या व्यवस्था है – कुआं

36.    महाकुंड में ईंटों के बीच चूने और चिरोड़ी के गारे का इस्तेमाल क्यों किया गया था – अशुद्ध पानी के प्रवेश को रोकने के लिए

37.    महाकुंड के पास मिले ज्ञानशालाओं के अवशेषों को क्या नाम दिया गया है – कॉलेज ऑफ प्रीस्ट्स

38.    दो पाँत और आठ स्नानागार कहाँ बने थे – कुंड के उत्तर में

39.    कोठार किस काम आते थे  – कर से प्राप्त अनाज जमा करने के

40.    दाढ़ी वाली मूर्ति का नाम क्या रखा गया – याजक नरेश

41.    नर्तकी के अलावा और किसकी मूर्ति मिली थी – दाढ़ी वाले याजक नरेश की

42.    मोहन जोदड़ो से सिंधु नदी कितनी दूरी पर बहती है – 5 किलोमीटर की दूरी पर

43.    मोहनजोदड़ो, हड़प्पा से प्राप्त हुई नर्तकी की मूर्ति किस राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी है – राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली

44.    मोहनजोदड़ो की गलियों तथा घरों को देखकर लेखक को किस प्रदेश का ख्याल आया – राजस्थान का

45.    मोहनजोदड़ो के घरों में टहलते हुए लेखक को किस गाँव की याद आई – कुलधरा, राजस्थान

46.    मोहनजोदड़ो की खुदाई में निकली पंजीकृत चीजों की संख्या कितनी है – 50,000 से अधिक

47.    मोहनजोदड़ो की लंबी सड़क अब कितनी बची है। – आधा मील

48.    सिंधु घाटी सभ्यता में कपास पैदा होता था।  इसका क्या प्रमाण है – सूती कपड़ा

49.    मोहनजोदड़ो को नागर भारत का सबसे पुराना क्या कहा गया है – लैंडस्केप (मैदानी संस्कृति)

50.    मोहनजोदड़ो की सभ्यता और संस्कृति अब किस जगह की शोभा बढ़ा रही हैं – अजायबघरों की

51.    मोहनजोदड़ो के वास्तुकला की तुलना किस नगर के साथ की गई है – चंडीगढ़

52.    खुदाई से प्राप्त गेहूँ का रंग कैसा था – काला

53.    अजायबघर में तैनात व्यक्ति का नाम क्या था – अली नवाज

54.    सिंधु सभ्यता की खूबी क्या है – सौंदर्यबोध

55.    लेखक ने सिंधु सभ्यता के सौंदर्यबोध को क्या नाम दिया है – समाज पोषित सौंदर्यबोध

56.    यहाँ की आड़ी और सीधी सड़कों को आज के वास्तुकार क्या कहते हैं – ग्रिड प्लान

57.    भग्न इमारत में कितने खंभे हैं  –  20

58.    डी. के. हलका किसके नाम पर रखा गया हैं – काशीनाथ दीक्षित के

59.    सोने की 3 सुइयाँ किसे मिली थी – काशीनाथ दीक्षित

60.    यहाँ के सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्से का नाम डी.के.जी किसके नाम पर रखा गया है – पुरातत्त्वविद काशीनाथ दीक्षित

61.    सिंधु घाटी सभ्यता में कौन से फल उगाए जाते थे – खजूर और अंगूर

62.    मोहनजोदड़ो के सबसे ऊँचे चबूतरे में क्या विद्यमान है – बौद्ध स्तूप

63.    बौद्ध स्तूप कितने फुट ऊँचे चबूतरे पर निर्मित है – 25 फुट

64.    स्तूप से महाकुंड की ओर जाने वाले रास्ते का नाम क्या रखा गया है – डिविनिटी स्ट्रीट यानी देव मार्ग

65.    चबूतरे पर किसके कमरे बने हुए हैं – बौद्ध भिक्षुओं के

66.    साधु के कमरे कहाँ थे – कुंड के तीन तरफ

67.    दक्षिण में टूटे-फूटे घरों के जमघट को किसकी बस्ती माना  गया है।  – कामगारों की

68.    उत्तर में दो पाँत में कितने स्नानघर हैं – 8

69.    अनाज की ढुलाई के लिए किस वाहन का प्रयोग किया जाता होगा – बैलगाड़ी

70.    मोहनजोदड़ो में कुओं को छोड़कर अन्य चीजों के आकार कैसे थे -चौकोर या आयताकार

71.    सिंधु घाटी के छोटे टीलों पर बनी बस्तियों को क्या कहा गया है – नीचा नगर

72.    रंगरेज के कारखानों में क्या रखा जाता होगा – रंगाई के बर्तन

73.    रंगाई का छोटा कारखाना खुदाई के समय किसे मिला था – माधोस्वरूप वत्स

74.    नालियों की क्या विशेषता थी – नालियाँ पक्की ईंटों से बनी हुई थी और ढकी हुई थी

75.    सिंधु की खास पहचान, छापे वाले कपड़ों को क्या कहते हैं – अजरक

76.    समूची सिंधु सभ्यता में औजार तो मिले परंतु क्या नहीं मिले  – हथियार

प्रश्न (1) ‘अतीत में दबे पाँव’ पाठ में किस सभ्यता का वर्णन किया गया है?

(i) गंगा घाटी सभ्यता

(ii) सिंधु घाटी सभ्यता

(iii) मेसोपोटामिया सभ्यता

(iv) माया सभ्यता

उत्तर – (ii) सिंधु घाटी सभ्यता

प्रश्न (2) मुअनजो-दड़ो को किस युग का नगर माना जाता है?

(i) कांस्य युग

(iii) ताम्र युग

(ii) नव पाषाण युग

(iv) लौह युग

उत्तर – (iii) ताम्र युग

प्रश्न (3) मुअनजो-दड़ो का शाब्दिक अर्थ है?

(i) शिलालेख

(iii) पर्वतीय क्षेत्र

(ii) पठारी क्षेत्र

(iv) मृतकों के टीला

उत्तर – (iv) मृतकों के टीला

प्रश्न (4) ताम्रकाल के शहरों में सबसे बड़ा शहर कौन-सा है?

(i) मोहनजोदड़ो

(iii) राखीगढ़ी

(ii) लोथल

(iv) हड़प्पा

उत्तर – (i) मोहनजोदड़ो

प्रश्न (5) ‘अतीत में दबे पाँव’ पाठ के अनुसार निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही नहीं है?

(i) मुअनजो-दड़ो प्राकृतिक टीलों पर बसा था।

(ii) मोहनजो-दड़ो और हड़प्पा सिंधु घाटी सभ्यता के परिपक्व नगर हैं।

(iii) सिंधु-घाटी सभ्यता संसार में ज्ञात संस्कृति है जो कुएँ खोदकर भू-जल तक पहुँची।

(iv) मोहनजो-दड़ो में सूत की कताई-बुनाई के साथ रँगाई भी होती थी।

उत्तर – (i) मुअनजो-दड़ो प्राकृतिक टीलों पर बसा था।

प्रश्न (6) मेसोपोटामिया के शिलालेखों में मोहनजोदड़ो के लिए किस शब्द का सम्भावित प्रयोग मिलता है?

(i) मुनजो

(iii) मेलुहा

(ii) इंडस

(iv) इनमें से कोई नहीं

उत्तर – (iii) मेलुहा

प्रश्न (7) मोहनजोदड़ो का नगर नियोजन निम्नलिखित में से किस व्यवस्था पर आधारित था?

(i) हाईब्रीड प्लान

(iii) ट्री प्लान

(ii) ग्रिड प्लान

(iv) इनमें से कोई नहीं

उत्तर – (ii) ग्रिड प्लान

प्रश्न (8) इतिहासकार इरफान हबीब के मुताबिक सिंधु घाटी सभ्यता के लोग किस प्रकार की खेती किया करते थे? (i) खरीफ

(iii) जायद

(ii) रबी

(iv) इनमें से कोई नहीं

उत्तर – (ii) रबी

प्रश्न (9) किसके निर्देशन में मोहनजोदड़ो की खुदाई का व्यापक अभियान शुरू हुआ?

(i) सर जॉन मार्शल

(iii) इरफान हबीब

(ii) राखालदास बनर्जी

(iv) दीक्षित काशीनाथ

उत्तर – (i) सर जॉन मार्शल

प्रश्न (10) किस वर्ष मोहनजोदड़ो में प्राचीन नगर सभ्यता होने के प्रमाण मिले?

(i) सन् 1919

(iii) सन् 1921

(ii) सन् 1920

(iv) सन् 1922

उत्तर – (iv) सन् 1922

प्रश्न (11) मोहनजो-दड़ो शहर में जिस स्थान पर स्तूप बना है उस हिस्से को पुरातत्त्व के विद्वान क्या कहते हैं?

(i) गढ़

(iii) कुंड

(ii) किला

(iv) बुर्ज़

उत्तर – (i) गढ़

प्रश्न (12) पाँच हजार साल पहले मोहनजो-दड़ो नगर की आबादी कितनी थी?

(i) अस्सी हजार

(iii) पच्चासी हजार

(ii) पचास हजार

(iv) साठ हजार

उत्तर – (iii) पच्चासी हजार

प्रश्न (13) मोहनजो-दड़ो नगर बसा हुआ था?

(i) टीले पर

(iii) पहाड़ों पर

(ii) मैदान पर

(iv) पर्वतों पर

उत्तर – (i) टीले पर

प्रश्न (14) मोहनजो-दड़ो शहर कितने क्षेत्र में फैला हुआ था?

(i) दो सौ हेक्टयर

(iii) चार सौ हेक्टयर

(ii) तीन सौ हेक्टयर

(iv) पाँच सौ हेक्टयर

उत्तर – (i) दो सौ हेक्टयर

प्रश्न (15) सिंधु घाटी सभ्यता का केन्द्र किसे माना जाता है?

(i) राजस्थान को

(iii) महाराष्ट्र को

(ii) मोहनजोदड़ो को

(iv) हरियाणा को

उत्तर – (ii) मोहनजोदड़ो को

प्रश्न (16) मोहनजोदड़ो नगर की खुदाई में कौन-कौन सी वस्तुएँ मिली थी?

(i) काला पड़ गया गेहूँ

(ii) चाक पर बने चित्रित मृद्-भांड

(iii) 1 और 2 दोनों

(iv) इनमें से कोई नहीं

उत्तर – (iii) 1 और 2 दोनों

प्रश्न (17) कुंड की सीढ़ियाँ किस दिशा में उतरती है?

(i) उत्तर-दक्षिण

(iii) पूर्व-पश्चिम में

(ii) दक्षिण-पूर्व

(iv) उत्तर-पूर्व में

उत्तर – (iv) उत्तर-पूर्व में

प्रश्न (18) आज के मुहावरे में सिंधु घाटी सभ्यता को क्या कहा जाता है?

(i) हाई प्रोफाइल सभ्यता

(ii) लो प्रोफाइल सभ्यता

(iii) मिडिल प्रोफाइल सभ्यता

(iv) उपर्युक्त सभी

उत्तर – (ii) लो प्रोफाइल सभ्यता

प्रश्न (19) ‘कॉलेज ऑफ द प्रीस्ट्स’ किसे माना जाता है?

(I) ज्ञानशाला को

(iii) गौशाला को

(ii) पाठशाला को

(iv) धर्मशाला को

उत्तर – (I) ज्ञानशाला को

प्रश्न (20) मोहनजो-दड़ो सभ्यता में सूत की कटाई-बुनाई के साथ क्या होता था?

(i) सिलाई

(ii) रंगाई

(iii) 1 और 2 दोनों

(iv) इनमें से कोई नहीं

उत्तर – (iii) 1 और 2 दोनों

प्रश्न (21) सिंधु घाटी सभ्यता के दौर में व्यापार के साथ और क्या होता था?

(i) उन्नत खेती

(iii) मछलीपालन

(ii) पशुपालन

(iv) मुर्गीपालन

उत्तर – (i) उन्नत खेती

प्रश्न (22) ‘अतीत में दबे पाँव’ पाठ में मोहनजोदड़ो की किसी खुदाई में नहर होने के प्रमाण न मिलने पर क्या अनुमान लगाया जाता है?

(i) उस काल में काफी बारिश होती होगी।

(ii) उस काल में पानी का प्रयोग कम होता होगा।

(iii) उस काल में खेती-बाड़ी इतनी अधिक नहीं होती होगी।

(iv) उस काल में लोगों को नहरों के विषय में कोई जानकारी नहीं होती होगी।

उत्तर – (i) उस काल में काफी बारिश होती होगी।

प्रश्न (23) सिंधु घाटी सभ्यता में नगर योजना, वास्तुकला, पानी या साफ-सफाई जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं में एकरूपता को कायम रखने का आधार क्या हो सकता है?

(i) यहाँ का राजा कठोर अनुशासन रखता था।  

(ii) यहाँ जनता ही कर्ता-धर्ता थी।  

(iii) यहाँ कोई अनुशासन जरूर था।  

(iv) यहाँ सब कुछ प्रकृति प्रदत्त था।  

उत्तर – (iii) यहाँ कोई अनुशासन जरूर था।

प्रश्न (24) ‘अतीत में दबे पाँव ‘ पाठ के अनुसार – “सिंधु सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्य-बोध है जो राज-पोषित या धर्म-पोषित न होकर समाज-पोषित था।” ऐसा इसलिए कहा गया है, क्योंकि

(i) सिंधु घाटी सभ्यता में सौंदर्य के प्रति चेतना अधिक थी।  

(ii) सिंधु घाटी सभ्यता में राजा से बड़ा स्थान लोगों के कार्यों का था।  

(iii) सिंधु घाटी सभ्यता में धर्म का महत्त्व न था। अतः समाज ही सर्वोपरि था।

(iv) सिंधु घाटी सभ्यता में अमीर-गरीब न थे। अतः समाज में समानता थी।

उत्तर – (iii) सिंधु घाटी सभ्यता में धर्म का महत्त्व न था। अतः समाज ही सर्वोपरि था।

प्रश्न (25) “टूटे-फूटे खंडहर, सभ्यता और संस्कृति के इतिहास के साथ-साथ धड़कती जिंदगियों के अनछुए समयों के सभी दस्तावेज होते हैं।”- ‘अतीत में दबे पाँव’ पाठ के अनुसार इस कथन का क्या भाव है?

(i) ऐतिहासिक इमारतों में बीते हुए जीवन के चिह्न महसूस होते हैं।  

(ii) ऐतिहासिक इमारतों, कला, खान-पान इत्यादि में सदा जीवन्तता होती है।  

(iii) पुरातन इमारतों के अध्ययन मात्र से इतिहास की व्याख्या संभव हो पाती है।  

(iv) इतिहास की समझ हेतु केवल सभ्यता और संस्कृति का जानना आवश्यक होता है।  

उत्तर – (i) ऐतिहासिक इमारतों में बीते हुए जीवन के चिह्न महसूस होते हैं।

प्रश्न (26) सिंधु घाटी की सभ्यता के लिखित प्रमाण न मिलने का क्या कारण हो सकता है?

(i) यह सभ्यता बहुत अधिक विशाल है।  

(ii) इतनी पुरानी सभ्यता के लिखित प्रमाण मिलने संभव नहीं है।  

(iii) इस सभ्यता में केवल मौखिक प्रमाण मिलते हैं।  

(iv) यह सभ्यता अत्यंत सीमित और कमजोर थी।  

उत्तर – (ii) इतनी पुरानी सभ्यता के लिखित प्रमाण मिलने संभव नहीं है।

प्रश्न (27) मोहनजो-दड़ो के घरों की मोटी दीवारों से क्या अनुमान लगाया जा सकता है?

(i) ये दीवारें केवल प्रदर्शन मात्र के लिए बनवाई गई होंगी।

(ii) ये दीवारें प्राकृतिक आपदा से बचने के लिए बनी होंगी।

(iii) इन दीवारों पर दूसरी मंजिल भी रही होगी।

(iv) इन दीवारों पर सुन्दर चित्रकारी करनी होगी।

उत्तर – (iii) इन दीवारों पर दूसरी मंजिल भी रही होगी।

प्रश्न (28) सिंधु घाटी की सभ्यता में मिले अजायबघर की सबसे बड़ी विशेषता क्या है? ‘अतीत के दबे पाँव’ पाठ के आधार पर सही विकल्प चुनिए –

(i) यह अजायबघर घर बहुत विशाल और सुंदर है।  

(ii) इसमें सभी प्रकार की वस्तुएँ संग्रहित हैं।  

(iii) इसमें औजार तो हैं,परन्तु हथियार नहीं हैं।  

(iv) इसमें उत्कृष्ट कलात्मकता दिखाई देती है।  

उत्तर – (iii) इसमें औजार तो हैं,परन्तु हथियार नहीं हैं।

प्रश्न (29) लेखक ने सिंधु सभ्यता को जल संस्कृति किस आधार पर कहा है?

(i) उस समय अधिक वर्षा होने के कारण

(ii) नदी, कुएँ, कुंड स्नानागार और बेजोड़ जल निकासी के कारण

(iii) केवल नदियों के किनारे बसी होने के कारण

(iv) जल की बर्बादी रोकने के कारण

उत्तर – (ii) नदी, कुएँ, कुण्ड, स्नानागार और बेजोड़ जल निकासी के कारण।

प्रश्न (30) सिंधु घाटी की सभ्यता दूसरी सभ्यताओं से किस प्रकार भिन्न थी?

(i) यह सभ्यता पूर्णतः राजाश्रित सभ्यता थी।  

(ii) यह सभ्यता पूर्णतः साधन संपन्न सभ्यता थी।  

(iii) इसमें किसी एक का प्रभुत्त्व नहीं था, बल्कि एकता व समृद्धि से परिपूर्ण सभ्यता थी।  

(iv) इसमें निम्न वर्ग पर विशेष ध्यान दिया गया, ताकि उनका विकास हो सके।  

उत्तर – (iii) इसमें किसी एक का प्रभुत्त्व नहीं था, बल्कि एकता और समृद्धि से परिपूर्ण सभ्यता थी।

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