कवि परिचय : बिहारी
बिहारी हिंदी के रीति काल के प्रसिद्ध कवि थे। बिहारीलाल का जन्म संवत् 1603 के आसपास ग्वालियर में हुआ। वे जाति के माथुर चौबे (चतुर्वेदी) थे। उनके पिता का नाम केशवराय था। इनके गुरु आचार्य केशवदास थे। कहा जाता है कि वे मुगल बादशाह जहाँगीर और शाहजहाँ के कृपापात्रों में से एक थे। सन् 1935 में वे जयपुर के राजा जयसिंह के दरबार में गए जहाँ उन्हें आश्रय व प्रत्येक दोहे पर एक स्वर्ण मुद्रा का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। बिहारी की कविता का मुख्य विषय शृंगार है। उन्होंने शृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का वर्णन किया है। संयोग पक्ष में बिहारी ने हावभाव और अनुभवों का बड़ा ही सूक्ष्म चित्रण किया हैं। बिहारी ने सात सौ से कुछ अधिक दोहों की रचना की, जिनका संग्रह ‘बिहारी सतसई’ के नाम से हुआ है। एक-एक दोहे में अनेक भावों को सफलतापूर्वक भर देना इन्हीं का काम था। इसीलिए कहा जाता है कि बिहारी ने ‘गागर में सागर भरा है। अलंकार, नायिकाभेद, प्रकृति-वर्णन तथा भाव, विभाव, अनुभाव, संचारीभाव आदि सब कुछ अड़तालिस मात्राओं के एक छोटे से छन्द दोहे में भरकर इन्होंने काव्य-कला का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया है।
बिहारी ने केवल एक ही ग्रन्थ ‘बिहारी सतसई’ की रचना की। उसी एक कृति ने इनको हिन्दी साहित्य में अमर कर दिया। ‘बिहारी सतसई’ में नीति, भक्ति और शृंगार संबंधी दोहों का संकलन है। ‘बिहारी सतसई’ एक शृंगार रसप्रधान मुक्तक काव्य-ग्रन्थ है। शृंगार की अधिकता होने के कारण बिहारी मुख्य रूप से शृंगार रस के कवि माने जाते हैं। इन्होंने छोटे-से दोहे में प्रेम-लीला के गूढ़-से-गूढ़ प्रसंगों को अंकित किया है। इनके दोहों के विषय में कहा गया है-
सतसैया के दोहरे, ज्याँ नाविक के तीर।
देखने में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर॥
अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद बिहारीलाल राजदरबार छोड़कर वृन्दावन चले गये और वहीं सन् 1663 ईस्वी (संवत् 1720 वि०) में इनका निधन हो गया था।
दोहा – 01
मेरी भव बाधा हरौ राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाँई परै स्यामु हरित – दुति होइ॥1॥
शब्दार्थ
मेरी — मेरी
भव बाधा — संसार के दुख, जन्म-मरण का कष्ट
हरौ — हर ले (दूर कर दे)
राधा नागरि — राधा जी, जो ब्रज की सुशोभिता हैं, प्रेम की राजधानी हैं
सोइ — वही
जा तन की — जिनके शरीर की
झाँई परै — छाया पड़ती है
स्यामु — श्रीकृष्ण (श्याम वर्ण वाले)
हरित-दुति होइ — हरे रंग की आभा हो जाती है (श्याम रंग हरे रंग में बदल जाता है)
व्याख्या
यह दोहा बिहारी सतसई का प्रथम दोहा है। इस दोहे में कवि बिहारी राधा जी से प्रार्थना कर रहे हैं कि हे चतुर राधा! आप मेरी सभी सांसारिक बाधाओं और कष्टों को दूर करें। आप वही हैं जिनके शरीर की थोड़ी-सी भी परछाई या आभा मात्र पड़ते ही, साँवले रंग के भगवान कृष्ण भी हरे रंग की कांति वाले हो जाते हैं। अर्थात् आपकी आभा से प्रभु श्रीकृष्ण भी आनंदित हो जाते हैं तो अब आप ही मेरे कष्टों का निवारण कीजिए।
यहाँ बिहारी जी एक विचित्र नीति अपनाते हुए श्रीकृष्ण से निवेदन न करते हुए उनकी प्रिया राधा से निवेदन कर रहे हैं ताकि उनके कष्टों का हरण शीघ्रातिशीघ्र हो सके।
अलंकार
श्लेष अलंकार:
‘हरित-दुति’ शब्द में श्लेष अलंकार है। इसके दो अर्थ निकलते हैं:
हरा रंग: कृष्ण का सांवला रंग राधा के गौरवर्ण की परछाई पड़ने से हरा हो जाता है।
प्रसन्नता/दुःख हरण: कृष्ण के सारे दुख दूर हो जाते हैं और वे प्रसन्नचित्त हो जाते हैं।
श्लेष अलंकार तब होता है जब एक शब्द के एक से अधिक अर्थ होते हैं।
अतिशयोक्ति अलंकार —
राधाजी की छाया से ही कृष्ण का रंग बदल जाना — यह बात सामान्यतः असंभव है, इसलिए इसमें अतिशयोक्ति अलंकार भी है।
दोहा – 02
तो पर बारौं उरबसी, सुनि, राधिके सुजान।
तू मोहन कैं उर बसी, ह्वै उरबसी समान॥2॥
शब्दार्थ
तो पर — उससे (उर्वशी) भी ऊपर
बारौं — श्रेष्ठ/बेहतर मानूँ
उरबसी — उर्वशी (स्वर्ग की अप्सरा, सुंदरता की प्रतीक)
सुनि — सुनो
राधिके सुजान — हे राधा, जो ज्ञानी/सुजान/बुद्धिमती हैं
तू — तुम
मोहन कैं — श्रीकृष्ण के
उर बसी — हृदय में बसी हुई
ह्वै (हुए) — होकर
उरबसी समान — उर्वशी के समान
व्याख्या –
इस दोहे में कवि बिहारी कहते हैं कि हे चतुर राधा! मैं आपकी सुंदरता पर स्वर्ग की सबसे सुंदर अप्सरा उर्वशी को भी न्योछावर करता हूँ। ऐसा इसलिए है क्योंकि आप भगवान श्रीकृष्ण के हृदय में इस प्रकार बस गई हैं, जैसे उनके हृदय में धारण किया जाने वाला उरबसी नामक आभूषण हार बसा हुआ होता है। सच्चे अर्थों में ‘उरबसी’ या हृदय-निवासिनी कहलाने योग्य आप ही हैं। इसलिए वास्तविक ‘उरबसी’ तो आप ही हैं।
यहाँ राधा के अनुपम सौंदर्य और कृष्ण के प्रति उनकी महत्ता को दर्शाया गया है। कवि कहते हैं कि राधा न केवल उर्वशी अप्सरा से अधिक सुंदर हैं, बल्कि वह कृष्ण के लिए उनके हृदय के सबसे प्रिय आभूषण के समान हैं।
दोहा – 03
नहिं परागु नहिं मधुर मधु, नहिं बिकासु इहिं काल।
अली, कली ही सौं बँध्यों, आगें कौन हवाल॥3॥
शब्दार्थ
नहिं परागु — नहीं है पराग (फूल का पराग/रज)
नहिं मधुर मधु — नहीं है मधुर मधु (मीठा रस, यानी शहद)
नहिं बिकासु — नहीं हुआ विकास (फूल अभी खिला नहीं है)
इहिं काल — इस समय
अली — मधुमक्खी / भ्रमर (यहाँ संदर्भ कृष्ण का है)
कली ही सौं बँध्यों — केवल कली से ही बँध गया है (मोह गया है)
आगें कौन हवाल — आगे क्या होगा, उसका क्या हाल होगा
व्याख्या
इस दोहे में कवि बिहारी ने प्रतीकों के माध्यम से राजा जयसिंह को समझाने का प्रयास किया है। कवि कहते हैं कि हे भौंरे के रूप में राजा जयसिंह ने जिस कली अर्थात् उनकी नवविवाहिता छोटी रानी के प्रेम में अभी से ही अत्यधिक आसक्त हो गए हैं, जिसमें न तो अभी पूरी तरह पराग (यौवन का सौंदर्य और परिपक्वता) है, न ही मधुर मधु (प्रेम का पूर्ण आनंद) है और न ही वह पूरी तरह खिली (विकसित) हुई है। यदि तुम अभी से इस कच्ची अवस्था वाली कली पर इतना मोहित हो गए हो, तो सोचो जब यह कली पूरी तरह से विकसित होकर फूल बन जाएगी (अर्थात् रानी जब पूर्ण यौवन को प्राप्त होगी), तब तुम्हारा क्या हाल होगा? तुम उसमें कितने गहरे डूब जाओगे और अपने राज-काज को कैसे संभाल पाओगे?
यह दोहा राजा को उनके कर्तव्य से विमुख होने और नई रानी के मोह में अत्यधिक लिप्त होने पर सचेत करने के लिए लिखा गया था।
अलंकार:
अन्योक्ति अलंकार
अन्योक्ति अलंकार: यहाँ कवि ने अप्रत्यक्ष रूप से भौंरे और कली के माध्यम से राजा जयसिंह और उनकी नवविवाहिता रानी की स्थिति का वर्णन किया है। बात किसी और (भौंरे और कली) के बारे में कही जा रही है, लेकिन उसका अर्थ किसी और (राजा और रानी) पर लागू होता है। जब कोई बात सीधे न कहकर किसी दूसरे के माध्यम से कही जाए, तो वहाँ अन्यक्ति अलंकार होता है।
दोहा – 04
पत्रा ही तिथि पाइयै, वा घर के चहुँ पास।
नितप्रति पून्यौई रहे, आनन – ओप – उजास॥4॥
शब्दार्थ
पत्रा ही — केवल पत्र देखकर ही (जैसे पंचांग या कैलेंडर में तिथि देखी जाती है)
तिथि पाइयै — शुभ तिथि का आभास हो जाता है
वा घर — उस घर (जहाँ राधा जी रहती हैं)
के चहुँ पास — चारों ओर (चारों दिशाओं में)
नितप्रति — प्रतिदिन
पून्यौई रहे — पूर्णिमा के समान प्रकाशमान रहता है
आनन – ओप – उजास — मुख की आभा, सौंदर्य का तेज, चेहरे की चमक
इस दोहे में कवि बिहारी राधा के अनुपम सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि उस नायिका के घर के चारों ओर उसके मुख की इतनी अधिक कांति और प्रकाश फैला रहता है कि वहाँ हर दिन ऐसा लगता है जैसे पूर्णिमा की रात हो। वहाँ तिथि का सही पता लगाने के लिए लोगों को कैलेंडर या पंचांग देखना पड़ता है, क्योंकि नायिका के चेहरे के अद्भुत तेज और चमक के कारण वहाँ कभी अँधेरा होता ही नहीं, हमेशा पूर्णिमा जैसा उजाला रहता है।
यह वर्णन नायिका के सौंदर्य की अत्यंत अतिशयोक्तिपूर्ण प्रस्तुति है, जिसमें उसके मुख की चमक को चंद्रमा के प्रकाश से भी बढ़कर बताया गया है, जो पूरे वातावरण को आलोकित कर देती है।
अलंकार:
अतिशयोक्ति अलंकार
यहाँ नायिका के मुख की कांति का इतना बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया गया है कि उससे पूरे घर के चारों ओर पूर्णिमा जैसा प्रकाश फैल जाता है और तिथि का पता लगाने के लिए पंचांग देखना पड़ता है।
अनुप्रास अलंकार —
“आनन – ओप – उजास” — में अनुप्रास अलंकार है।
दोहा – 05
या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोई।
ज्यों ज्यों बड़े स्याम रंग, त्यों त्यौं उज्जलु होई॥5॥
शब्दार्थ
या अनुरागी चित्त की — इस प्रेमी मन की (प्रेम में डूबे हुए मन की)
गति — स्थिति, दशा, चाल या रहस्य
समुझै नहिं कोई — कोई समझ नहीं सकता
ज्यों ज्यों — जैसे-जैसे
बड़े स्याम रंग — श्याम रंग (कृष्ण प्रेम) गहरा होता जाता है
त्यों त्यों — वैसे-वैसे
उज्जलु होई — उज्जवल (शुद्ध, दिव्य, प्रकाशित) होता जाता है
व्याख्या
इस दोहे में कवि बिहारी कहते हैं कि भगवान के प्रेम में रंगे हुए (आसक्त) मन की गति या स्थिति को कोई साधारण व्यक्ति नहीं समझ पाता। यह मन संसार के विपरीत व्यवहार करता है। सामान्यतः गहरे या काले रंग में रंगने से वस्तु काली या मैली होती है, परंतु यहाँ तो जैसे-जैसे यह मन श्याम रंग अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम में गहराता जाता है, वैसे-वैसे यह और अधिक उज्ज्वल, निर्मल और पवित्र होता जाता है।
यह दोहा भक्त की अनूठी स्थिति का वर्णन करता है जहाँ लौकिक नियम काम नहीं करते। ईश्वर के प्रेम में लीन होने से मन के सारे मैल, विकार, पाप धुल जाते हैं और वह परम पवित्रता को प्राप्त कर लेता है।
अलंकार
विरोधाभास अलंकार
यहाँ ‘श्याम रंग’ (काला रंग) और ‘उज्जलु होई’ (उज्ज्वल होना) के बीच विरोध दर्शाया गया है। इस दोहे में मुख्य रूप से विरोधाभास अलंकार है।
अनुप्रास अलंकार —
“ज्यों ज्यों… त्यों त्यों” — में पुनरावृत्ति पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
दोहा – 06
मोहन मूरति स्याम की अति अद्भुत गति जोइ।
बसतु सु चिर- अंतर, तऊ प्रतिबिंबितु जग होइ॥6॥
शब्दार्थ
मोहन मूरति — श्रीकृष्ण का मोहक स्वरूप
स्याम की — श्याम वर्ण की (कृष्ण की)
अति अद्भुत गति — अत्यंत अद्भुत चाल/स्थिति/प्रभाव
जोइ — वही (गति, प्रभाव)
बसतु — वह वस्तु (कृष्ण)
सु चिर-अंतर — बहुत भीतर बसी हुई (मन/हृदय में गहराई से स्थित)
तऊ — तब भी
प्रतिबिंबितु — प्रतिबिंबित होती है (प्रकाशित होती है, झलकती है)
जग होइ — इस संसार में
व्याख्या
कवि बिहारी इस दोहे में भगवान श्रीकृष्ण की मनमोहिनी श्याम मूर्ति की महिमा का बखान करते हुए कहते हैं कि देखो, श्रीकृष्ण की मोहिनी छवि की लीला कितनी अद्भुत है। कृष्ण की छवि या उनका स्वरूप अत्यंत गहरे रूप में भक्त के हृदय में, या ब्रह्मांड के कण-कण में अव्यक्त रूप से निवास करता है, फिर भी उसका प्रतिबिंब या प्रभाव पूरे संसार में, हर जगह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। वास्तव में यह दोहा भगवान की सर्वव्यापकता, उनके विराट स्वरूप और उनके आंतरिक निवास के बावजूद बाह्य जगत पर उनके अप्रत्यक्ष प्रभाव को दर्शाता है। यह दर्शाता है कि ईश्वर हृदय में ही नहीं, बल्कि हर जगह, हर कण में व्याप्त हैं और उनकी उपस्थिति का अनुभव पूरे ब्रह्मांड में किया जा सकता है।
अलंकार
विरोधाभास अलंकार
यहाँ ‘बसतु सु चिर-अंतर’ (अत्यंत अंदर रहना) और ‘तऊ प्रतिबिंबितु जग होइ’ (फिर भी पूरे संसार में प्रतिबिंबित होना) के बीच विरोधाभास का आभास होता है।
अनुप्रास अलंकार —
“मोहन मूरति” में ‘म’ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।
दोहा – 07
दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चिर प्रीति।
परति गाँठि दुरजन हियँ, दई, नई यह रीति॥7॥
शब्दार्थ
दृग उरझत — नेत्र उलझ रहे हैं (आंखों की नजर टकरा रही है, प्रेम में फँस रहे हैं)
टूटत कुटुम — परिवार बिखर रहे हैं / सामाजिक संबंध टूट रहे हैं
जुरत चतुर चिर प्रीति — चतुर (चतुरस्र) लोग दीर्घकालिक प्रेम में बँध रहे हैं
परति गाँठि — पड़ गई गाँठ (प्रेम की गांठ, मन की गांठ)
दुरजन हियँ — दुष्ट लोगों के हृदय में
दई — दे दी गई / बैठ गई
नई यह रीति — यह नई परंपरा/प्रणाली है
व्याख्या –
इस दोहे में कवि बिहारी प्रेम के असाधारण और विचित्र प्रभाव का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि प्रेम की गति कितनी अद्भुत है: जब प्रेमियों की नज़रें मिलती/उलझती या चार होती हैं तो उनमें प्रेम उत्पन्न होता है। इसके बाद इस प्रेम के कारण परिवारों में फूट पड़ जाती है, संबंधियों में विरोध और अलगाव हो जाता है जो कि एक अप्रत्यक्ष और नकारात्मक परिणाम है। इसके पश्चात् वहीं दूसरी ओर, नायक-नायिका के बीच एक अटूट और चिरस्थायी प्रेम का संबंध जुड़ जाता है। किसके कारण जो इस प्रेम के विरोधी (दुर्जन) होते हैं, उनके हृदय में ईर्ष्या और द्वेष की गाँठ पड़ जाती है।
अंत में कवि आश्चर्यचकित होकर कहते हैं कि हे विधाता! यह प्रेम की कितनी अद्भुत और नई रीति है, जहाँ आँखें उलझने जैसे एक सरल कारण के इतने जटिल और विपरीत परिणाम देखने को मिलते हैं। प्रेम का प्रभाव किसी और पर, प्रेम किसी और में, और विरोधियों को ईर्ष्या! यह सब बहुत ही विचित्र है।
अलंकार
विरोधाभास अलंकार (व्यतिरेक) —
जहाँ एक ओर कुटुम्ब टूट रहे हैं, वहीं दूसरी ओर चतुर लोग प्रेम में जुड़ रहे हैं — यह विरोधाभास है।
अनुप्रास अलंकार —
चतुर चिर में ‘च’ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।
दोहा – 08
बतरस – लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ।
सौह करें भौहनु हँसे, दैन कहै नटि जाइ॥8॥
शब्दार्थ
बतरस – बातचीत का आनंद
लालच – लोभ
लाल – कृष्ण
मुरली – वंशी
धरी – रखना
लुकाइ – छिपकर
सौंह – सपथ
करैं – करना
भौंहनु – भौंह से (Eyebrows)
हँसैं – हँसना
दें – देना
कहैं – कहना
नटि – मुकर जाना
जाइ – जाना
व्याख्या
प्रस्तुत दोहे में बिहारी जी ने श्रीकृष्ण और गोपियों के बीच मुरली के संदर्भ में हो रहे बातचीत का वर्णन किया है। गोपियाँ हर पल कृष्ण के समीप रह कर बातें करना चाहती हैं और इसी वजह से उन्होंने श्रीकृष्ण की मुरली कहीं छिपा दी है। श्रीकृष्ण जब गोपियों से अपनी मुरली माँगते हैं तो गोपियाँ झूठी कसम खाती हैं कि उन्होंने मुरली नहीं ली है पर कसम खाते वक्त भौंहें हिलाकर हँसती हैं। उनके हाव-भाव से स्पष्ट हो जाता कि मुरली उन्होंने ही छिपाई है। वे भी क्या करें श्रीकृष्ण का सान्निध्य ही कुछ ऐसा है कि लोग उनसे दूर होना ही नहीं छाते।
अलंकार
‘लालच लाल’ में ‘च’ वर्ण की आवृत्ति के कारण अनुप्रास अलंकार है।
दोहा – 09
इन दुखिया अँखियानु कौं, सुखु सिरज्यौई नांहि।
देखे बनै न देखते, अनदेखे अकुलाँहि॥9॥
शब्दार्थ
इन दुखिया अँखियानु कौं — इन दुखी नेत्रों को
सुख सिरज्यौई नांहि — सुख की रचना नहीं की गई / सुख का भाग्य नहीं बना
देखे बनै न देखते — जिन्हें देखकर भी चैन नहीं मिलता और न ही न देखकर
अनदेखे अकुलाँहि — न देख पाने पर अत्यधिक व्याकुल हो जाते हैं
व्याख्या –
इस दोहे में वियोग में डूबी हुई नायिका की आँखों की अत्यंत दयनीय और विचित्र स्थिति का वर्णन किया गया है। बिहारी कहते हैं कि इन बेचारी, दुखी आँखों के भाग्य में मानो सुख लिखा ही नहीं गया है। इनकी दशा ऐसी है कि जब ये अपने प्रिय (नायक) को देखती हैं, तब भी इन्हें संतोष या चैन नहीं मिलता; इनकी प्यास बुझती नहीं है, बल्कि और बढ़ जाती है। और यदि प्रिय दिखाई न दे, तो ये आँखें उसके विरह में बुरी तरह से व्याकुल और बेचैन हो जाती हैं।
यह दोहा वियोग-दशा में प्रेम की अतृप्त प्यास को दर्शाता है, जहाँ प्रेमी की उपस्थिति भी पूर्ण संतोष नहीं दे पाती और अनुपस्थिति असहनीय पीड़ा देती है। यह प्रेम की उस गहन अवस्था को व्यक्त करता है जहाँ चाहत इतनी तीव्र होती है कि वह कभी पूर्ण रूप से तृप्त नहीं होती।
अलंकार
विरोधाभास अलंकार:
‘देखे बनै न देखते, अनदेखे अकुलाँहि’ पंक्ति में विरोधाभास है। सामान्यतः देखने से संतोष मिलता है और न देखने से व्याकुलता। परंतु यहाँ देखने पर भी संतोष नहीं मिल रहा है, जो कि एक विरोधाभासी स्थिति है। जहाँ वास्तविक विरोध न होते हुए भी विरोध का आभास हो, वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है।
विषम अलंकार
आँखों की ऐसी स्थिति जो सामान्य से विपरीत हो, उसे ‘विषम’ कहा जा सकता है, जहाँ सुख की चाह होने पर भी सुख की प्राप्ति नहीं हो पाती और हर स्थिति में दुख ही मिलता है।
दोहा – 10
चिरजीवौ जोरी, जुरै क्यों न सनेह गंभीर।
को घटि, ए वृषभानुजा, वे हलधर के वीर॥10॥
शब्दार्थ
चिरजीवौ जोरी — वह (प्रेम) युगल (राधा-कृष्ण की जोड़ी) सदा जीवित रहे
जुरै क्यों न सनेह गंभीर — इतना गम्भीर प्रेम क्यों न दृढ़ और स्थायी हो
को घटि — कौन (इनमें से कोई) कम है?
वृषभानुजा — वृषभानु की पुत्री (राधा)
हलधर के वीर — बलराम जी के भाई, अर्थात् श्रीकृष्ण
व्याख्या
इस दोहे में कवि बिहारी राधा और कृष्ण की अद्वितीय जोड़ी को देखकर उनकी लंबी आयु की कामना करते हैं और उनके गहरे प्रेम को स्वाभाविक बताते हैं। कवि कहते हैं कि राधा और कृष्ण की यह जोड़ी सदैव बनी रहे और इनके बीच इतना गहरा प्रेम क्यों न हो?
इसका कारण बताते हुए कवि कहते हैं कि इन दोनों में से कोई भी किसी से कम नहीं है। अब यहाँ पर शब्दों में चमत्कार है: यहाँ ‘वृषभानुजा’ के दो अर्थ हैं:
वृषभानु की जा (पुत्री): यानी राधा।
वृषभ की अनुजा (छोटी बहन): अर्थात गाय।
‘हलधर के वीर’ के दो अर्थ हैं:
हलधर (बलराम) के वीर (भाई): यानी भगवान कृष्ण।
हल को धारण करने वाले (बैल) के वीर (भाई): यानी बैल
इस प्रकार, कवि श्लेष के माध्यम से कहते हैं कि यह प्रेम इसलिए स्वाभाविक है क्योंकि:
राधा और कृष्ण की जोड़ी: राधा वृषभानु की पुत्री हैं और कृष्ण बलराम के भाई हैं। दोनों ही अपने-अपने कुल में श्रेष्ठ हैं, इसलिए उनकी जोड़ी और प्रेम गंभीर होना ही चाहिए।
इस दोहे में कवि ने शब्दों के अद्भुत खेल से राधा-कृष्ण के प्रेम की दिव्यता और उनकी समानता को स्थापित किया है।
अलंकार:
श्लेष अलंकार
श्लेष अलंकार: इस दोहे में ‘वृषभानुजा’ और ‘हलधर के वीर’ शब्दों में श्लेष अलंकार है, क्योंकि इन दोनों शब्दों के एक से अधिक अर्थ हैं, और वे दोनों ही अर्थ प्रसंगानुसार संगत हैं।